दिव्या शुक्ला: तुम्हारे वज़ूद की खुशबू - कवितायेँ

, by शब्दांकन संपादक

दिव्या शुक्ला

जन्मस्थान: प्रतापगढ़
निवास: लखनऊ
रूचि: मन के भावो को पन्नो पर उतारना कुछ पढना ,कभी लिखना
सामाजिक कार्यों में योगदान अपनी संस्था स्वयंसिद्धा के द्वारा

 

तुम्हारे वज़ूद की खुशबू


सुनो - तुम नहीं जानते
 बहुत सहेज़ के रखे है मैने
 तुम्हारे सारे अहसास ....
 पता है तुम्हे
 अक्सर मै
 काफ़ी शाप की उसी कार्नर वाली टेबल पर जाकर बैठती हूँ
 उस दिन जहाँ हम दोनों बैठे थे
 सामने वाली चेयर पर
 तुम होते हो
प्रेम-तुम्हारे-वज़ूद-की-खुशबू-शब्दांकन-#Shabdan-दिव्या-शुक्ला-कविता--सौंदर्य
 टेबल पर रखी होती है दो कप काफी
 अब वेटर बिना कहे रख जाता है
 जब कि अब वो भी जान गया है
 कोई नहीं आने वाला ...
 अकेली ही कुछ देर बैठूंगी मै
 एक हाथ पे चेहरा टिकाये बैठी मै
 गुम होती जाती हूँ तुम्हारी यादों में
 उसी तरह चुप सी पर न जाने
 कितनी बातें कर जाती हूँ तुमसे
 बगल बैठे होते हो तुम
 - मेरे इर्दगिर्द
 तुम्हारे वज़ूद की खुशबू
 जिसे मै जन्मो से पहचानती हूँ
 यूँ लगता है जैसे हाथों को छू लिया
 तुमने ... तुम्हारी आँखों की छुअन
 मुझे महसूस होती रही अनजान बनी मै
 न जाने क्या सोच के मुस्करा पड़ी
 मैने तुम्हारी चोरी पकड़ ली थी न
 तुमने घड़ी देखी और उठ गए ...
 तुम्हे जाना भी तो था देर हो रही थी
 फ्लाइट राईट टाइम थी
 अचानक
 तुम मुड़े और मेरे कंधे पर अपना हाथ रखा
 मेरा सर छू भर गया तुम्हारे सीने से
 हम चाह के भी गले नहीं लग पाये
 न जाने क्यूँ ... हम दोनों में शायद
 हिम्मत नहीं थी ... अधूरी रह गई
 इक खूबसूरत सी ख्वाहिश
 तुम्हारे सीने पर हल्के से सर रख कर
 तुम्हारी धडकनों में अपना नाम सुनने की
 पर कोई बात नहीं ... बहुत है
 ये अहसास जिंदगी भर के लिए ...
 मैने बाँध कर छुपा दिया है
 तुम्हारा इश्क और अपने ज़ज्बात
 जब बहुत याद आते हो तो
 यहाँ आती हूँ कुछ देर
 तुम्हारे साथ बैठने को ...
 अक्सर ये सोचती हूँ पता नहीं
 तुम्हे मेरी याद आती भी होगी
 या भूल गए मुझे ... पर मै कैसे भूलूं
 मेरी बात और है ... तभी अचानक
 वेटर बोला मैम आपकी काफी ठंडी हो गई
 उदास सी मुस्कान तिर गई मेरे चेहरे पर
 मै उठ कर चल दी बाहर की ओर

अकुलाहट-शब्दांकन-#Shabdan-दिव्या-शुक्ला-कविता--सौंदर्य-प्रेम

अकुलाहट

    कितना भी हो घना अँधेरा
    सुबह कुहासे की चादर फाड़
    सूरज धीमी धीमी मुस्कान
    बिखेरेगा ही ...
    भोर तो आकर रहेगी
    मुझे मेरा मन कभी दुलार से
    तो कभी डांट के समझाता है
    पता है वो सच कह रहा है
    नहीं निकल पा रही हूँ मै
    उन लछमण रेखाओं के बाहर
    जो मैने खुद ही खींच ली थी और
    खुद को तुम्हारे साथ ही बंद कर लिया था जिसमें
    क्या बताऊँ ? तुम्हें भी बताना होगा क्या
    तुमको समझने में मै खुद को भूल गई थी
    आशा और निराशा धूप छाँव सी आती जाती है
    पर मुझे पता है वक्त लगेगा थोड़ा
    लेकिन मैं निकल आऊँगी बाहर
    अपनी ही खींची हुई परिधि से
    तुम वापस आओगे जरुर पता है मुझे
    पर तब तक कहीं पाषण न हो जाये
    यह हर्दय जिसमे तुम थे तुम ही हो
    यह भी सत्य है तुम्हारी याद की गंध
    हमेशा मेरे साथ ही रहेगी और साथ ही जायेगी
    एक अकुलाहट सी होने लगी है अब
    आखिर मेरे ही साथ क्यूं यह सब ??
    क्यूं की अभी भी जब इतना समय गुज़र गया
    काले केशों में चांदी भी उतरने लग गई
    फिर भी मुझे किसी को छलना नहीं आया
    चलो हर्दय का वह दरवाज़ा बंद ही कर देते है
    जहाँ पीड़ा स्नेह अनुराग जा कर बैठ जाते हैं
    न जाने क्यों इस मौन निशा में
    मेरा मन इतना भर आया कब से तुम से
    न जाने कितनी बातें करती रही और
    समय का पता ही न चला की कब भोर हो गई
    न जाने कितने जन्मों का नाता जो है तुम से
    यह भी भूल गई तुम तो यहाँ नहीं हो
    पर न जाने क्यूं लगता तुम यही मेरे पास ही हो
    सुनो मेरे पास ही हो यह अहसास ही काफी है
    हम रोज़ इसी तरह बातें करेंगे मुझे पता है
    तुम सब सुन रहे हो न क्यूं की तुम तो
    हमेशा मेरे साथ ही रहते हो - रहते हो न ??


मौलश्री

मौलश्री की सुगंध आज भी
हर पूर्णिमा को महकती है
अनजाने मे कदम फिर से
नदी तट पे पहुँच जाते
जल मे चांद के प्रतिबिम्ब मे
फिर तुम को खोजते हैं
अब तुम वहाँ नही आते
पर वो वो पूरे चांद की रात याद आती मुझे
महक रही थी मौलश्री से
चांद का प्रतिबिम्ब
इठला रहा था नदी के जल में
मौलश्री-शब्दांकन-#Shabdan-दिव्या-शुक्ला-कविता--सौंदर्य-प्रेम
तब तुम थे हम थे
निस्तब्ध रात थी
तुम मौन मुस्करा रहे थे
सुन रहे थे धैर्य से
मेरी न खतम होने वाली बातें
मुझे आदत है
जोर से हँसने की
और तुम्हें
सिर्फ मुस्कराने की
हमारे साथ चांद मुस्कराता
और चांदनी खिलखिलाती थी
पर आजकल सब उदास
तुम जो नहीं हो यहाँ
अजनबी से बन गये न जाने क्यूं
सुनो ! ज़रा बाहर झांको न
देखो तो - चांद से संदेश भेजा है मैने
जल्दी आना
नदी चांद चांदनी सब उदास है
मौलश्री अब ज्यादा नहीं महकती
तुम्हारे बिना
और मै
क्या कहूँ तुम तो जानते ही हो
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कहानी "थप्पड़" ... श्याम सखा 'श्याम'

, by शब्दांकन संपादक

     झूठी कहानी लिखना, मेरे वश की बात नहीं है । क्योंकि झूठी कहानी लिखने वाले को, सच का गला घोंट कर मारना पड़ता है । वैसे सच कभी नहीं मरता । सच न पहले मरा है न आगे कभी मरेगा । मरता है सिर्फ झूठ बोलने वाला और चूंकि मैं अभी मरना चहीं चाहता इसलिए झूठी कहानियाँ नहीं लिखता । आपने प्रेम की अनेक कहानियाँ पढ़ी होंगी और उसमें भी 'प्लेटोनिक लव यानि वह प्रेम जिसमें शारीरिक संबन्ध नहीं होता की कहानियाँ भी पढ़ी होंगी । हो सकता है समय, मजबूरी, संस्कारों के कारण या अपनी कायरतावश या मौके की नजाकत की वजह से या किन्हीं और कतिपय कारणों से यह संबन्ध स्थापित न हुए हों । लेकिन उन स्त्री-पुरुष दोस्तों के मन में जो एक-दूसरे को चाहते रहे हैं कभी भी शारीरिक संबन्धों की इच्छा पैदा न हुई हो मैं नहीं मानता । क्योंकि मैं आपसे पहले ही कह चुका हूँ कि मैं झूठी कहानी नहीं कहता । उम्र के इस पड़ाव तक अनेक संबन्ध जिए हैं मैंने तथा अनेक संबन्धों में मरा भी हूँ । जो संबन्ध जितने अधिक निकट थे वे उतनी जल्दी गल-सड़ गए तथा मर गए । यह केवल मेरे साथ ही हुआ हो ऐसा नहीं है । हम में से अनेक लोग समझौतों की राख इन गन्धाते संबन्धों पर डालकर जीने का नाटक करते हुए मरते रहते हैं । हाँ, तो मैं कह रहा था कि ऐसे अनेक संबन्ध मैंने भी जिए हैं । यहाँ मैं अपने पहले संबन्ध की बात करना चाहूँगा । ज़िक्र उस वक्त का है, जब हर किशोर की मसें भीगने लगती हैं । मन में एक अजीब-सी गुदगुदी होने लगती है और शरीर की बोटियाँ किसी को आलिंगन में कसने को आतुर हो उठती हैं । इसी तरह का परिवर्तन किशोरियों में भी आता है । उसे अंग्रेजी में 'प्यूबरटी’ कहते हैं । उनके शरीर के अवयव अचानक उभरने लगते हैं । आँखें लज्जा से झुकने लगती हैं, कनखियों से हमउम्र लड़कों को देखना उनका स्वभाव बन जाता है । शरीर बार-बार चाहता है कि कोई अपनी बलिष्ठ बाहों के आलिंगन में लेकर मन की इस अबूझ प्यास को बुझा दे ।

     सो बात उन्हीं दिनों की है, जब मैं सीनियर सैकेन्डरी के इम्तिहान देकर ननिहाल आया हुआ था । उस जमाने में सभी बच्चे छुट्टियों में अपने मामा-नाना के यहाँ जाते थे । क्योंकि वही एक मात्र स्थान होता था जहाँ छुट्टियाँ आनन्द पूर्वक बिताई जा सकती थी । न तो माँ-बाप की डाँट-डपट की फ्रिक होती थी और न ही कोई काम-धाम बताया जाता था । मेरे बड़े मामा का लड़का मेरी उम्र का था । अत: हम दोनों में मित्रभाव पैदा होना स्वाभाविक था और हम बेझिझक वे सब बातें करते थे जो इस उम्र में देहाती लड़के करते हैं । हमारी बातों के विषय क्या हो सकते हैं इसके बारे में विस्तार से बताने की जरूरत नहीं है । क्योंकि आप समझदार व्यक्ति हैं जो मेरी कहानी पढ़ते-पढ़ते इतनी दूर तक आ पहुँचे हैं तथा या तो आप इस उम्र और हालात से गुजर चुके हैं या गुजर रहे हैं । अगर आप इस उम्र से छोटे हैं तो आप इस कहानी को आगे ना पढ़े यह मेरा आपसे विनम्र निवेदन है । वरना जिस तरह कोई प्राइमरी पास व्यक्ति सीनियर सैकेन्डरी के पाठ्यक्रम को नहीं समझ सकता । उसी तरह आगे की कहानी आपकी समझ और पाठ्यक्रम से बाहर की बात होगी । मामा का लड़का सुखबीर दसवीं फेल होकर पढऩा छोड़ चुका था और ट्रैक्टर लेना चाहता था खेती करने के लिए । जबकि मामा का विचार था कि पहले वह काम करके दिखाए फिर ट्रैक्टर ले । वह फौज में भरती होने की भी सोचता था तथा मामा के मना करने के बावजूद कोशिश भी कर चुका था । परन्तु नाकाम रहा था । रात को हम दोनों नोहरे (पुरुषों की बैठक) की छत पर सोते थे और रात जाने कब तक बतियाते रहते थे ? इधर-उधर की बात होने के बाद हमारी बातें इस उम्र के लड़कों की तरह लड़कियों पर केंद्रित हो जाती थीं । मैं चूंकि शहर से आया था इसलिए लड़कियों के बारे में इस तरह खुली-उज्जड़ बातें मुझे अच्छी नहीं लगती थी । मगर धीरे-धीरे सुखबीर ने मुझे भी अपने रंग में रंग लिया था । वह अपने खेतों में काम करने वाली अनेक स्त्रियों और लड़कियों के बारे में अपने संबन्धों की बातें बड़े चस्के लेकर करता था । मगर पड़ोस में रहने वाली फूलाँ मौसी की लड़की बिमला के हाथ न आने का मलाल उसे बहुत अधिक था ।
बिमला फौजी बाप की बेटी थी । उसके पिता का निधन एक दुर्घटना में हो चुका था और रिश्ते-नाते बिरादरी के दबाव के बावजूद फूलाँ ने अपने अनपढ़ जेठ का लत्ता ओढऩे से साफ इन्कार कर दिया था । लत्ता ओढऩा हरियाणा के गाँव-देहात में विधवा विवाह का रूप था । पति के किसी भाई से विवाह करने का एक आम रिवाज था । फूलाँ मौसी को सुखबीर मौसी इसलिए कहता था क्योंकि सुखबीर की माँ और बिमला की माँ एक ही गाँव की रहने वाली थीं और इसी रिश्ते की वजह से उसका आना-जाना फूलाँ के घर लगा रहता था । हालाँकि वह जाता बिमला की वजह से ही था । बिमला दसवीं पास करके पढऩे के लिए कालेज जाने लगी थी । कालेज मामा के गाँव से लगभग दस किलोमीटर दूर था व पढऩे वाले सभी बच्चे लोकल बस से शहर जाते थे । मैंने बिमला को देखा था, वह वास्तव में ही बड़ी सुन्दर लड़की थी । सुखबीर के बारम्बार कहने का असर था या बिमला की सुन्दरता का कि मैं चाहे-अनचाहे बिमला पर नजर रखने लगा था । आप शायद जानते होंगे कि स्त्रियों में एक प्रकृति प्रदत्तगुण होता है कि चाहे आपकी नजर उनके किसी पिछले अंग पर ही पड़े उन्हें मालूम हो जाता है कि कोई उन्हें देख रहा है । अपने इसी गुण के कारण बिमला ने कई बार मुझे स्वयं को ताकते हुए पकड़ा भी । शुरूआत में उसकी नजर मुझे स्वयं को धिक्कारती नजर आई । मैं थोड़ा घबरा भी गया था, मैंने उसे चोरी से देखना छोड़ा तो नहीं परन्तु कम जरूर कर दिया था । वह कालेज से आते-जाते मेरे मामा के नोहरे के आगे से गुजरती थी । जहाँ मैं पहले बाहर बैठकर उसे देखता था वहीं अब बंद दरवाजे के सुराखों से उसे आते-जाते देखने लगा था । कुछ दिनों बाद मैंने देखा कि मुझे बाहर बैठा न पाकर वह खाली दरवाजे की तरफ झाँकने लगी थी । स्त्रियाँ अपनी उपेक्षा को सहन नहीं कर सकतीं । हालाँकि मैं बिमला की उपेक्षा नहीं कर रहा था । लेकिन हो सकता है उसे ऐसा ही महसूस हुआ हो । उधर सुखबीर मुझे उकसाता रहता था कि मैं बिमला से मित्रता करूँ और आखिर एक दिन मेरी उससे मित्रता हो गई ।

     हुआ यूँ कि एक दिन शहर के बस अड्डे पर वह गाँव जाने के लिए खड़ी थी गाँव जाने वाली आखिरी बस जा चुकी थी मैं मोटरसाईकिल पर ननिहाल आ रहा था । जब मैंने उससे गाँव चलने के लिए कहा तो थोड़े से संकोच के बाद वह मोटरसाईकिल पर बैठ गई । उसके बाद तो सिलसिला चल पड़ा । मैं शहर के चक्कर ज्यादा लगाने लगा और वह जान-बूझकर बस का टाईम निकालने लगी । हाँ, एतिहात के तौर पर हम गाँव की पक्की सड़क से न होकर नहर की पटरी से गाँव पहुँचते थे और बिमला गाँव पहुँचने से पहले ही मोटरसाईकिल से उतर जाती थी । हवा का चिंगारी से साथ और आग का घी से साथ क्या गुल खिलाता है ये आप जानते ही हैं वही गुल खिलने लगा और एक दिन इसकी खबर का कहर मुझ पर और बिमला दोनों पर टूट पड़ा । जब बिमला ने शक जाहिर किया कि वह माँ बनने वाली है ।

     नादान उम्र की वजह से हम दोनों ने इस संभावित खतरे की ओर ध्यान नहीं दिया था अब हमारे पाँव के नीचे से धरती खिसक गई थी और सिर पर आसमान टूट पड़ा था । न तो मैं और न बिमला ही उस वक्त उस हालात में विवाह के बारे में सोच सकते थे । सुखबीर से सलाह करके फैसला हुआ कि गर्भ गिरा दिया जाए । तथा जब हम दोनों पढ़कर अपने पाँवों पर खड़े हो जाएं तो विवाह कर लें । इस वक्त तो ऐसा करना किसी भी हालात में संभव नहीं था । गाँव-देहात की जात-बिरादरी में यह बात उस जमाने में असंभव थी । मैंने और सुखबीर ने शहर में एक लेडी डाक्टर से बात की तथा एक दिन बिमला कालेज ना जाकर मेरे साथ लेडी डाक्टर के पास गई तथा अर्बाशन करवा लिया । खून अधिक बह जाने से लेडी डाक्टर छुट्टी नहीं देना चाहती थी पर मैं तथा बिमला छुट्टी करवाकर लौट चले । रास्ते में, मैंने अनेक बार कसम खाकर बिमला को विश्वास दिलाया कि पढ़ाई खत्म कर नौकरी लगते ही हम कोर्ट मैरिज कर लेंगे । मैं मोटरसाईकिल पर बिमला को लिए वापिस आ रहा था नहर के रास्ते से । सड़क के रास्ते से देख लिए जाने का खतरा था। खतरा तो नहर के रास्ते पर भी था मगर सड़क से कम ही था, बिमला ने खेस ओढ़ रखा था जिससे भम्र रहता कि वह मरद थी। किसी तरह गाँव पहुँचे। बिमला को गाँव के बाहर उतार कर मैं शहर आ गया । अगले दिन ननिहाल गया । दो-तीन घंटे मुश्किल से कटे तथा अपना बोरिया-बिस्तरा उठाकर घर भाग आया ।

     उस दिन के बाद मैंने मुड़कर भी ननिहाल की तरफ मुँह नहीं किया । ब्याह-शादी तो दूर नानी के मरने पर भी बीमारी का बहाना करके रह गया । पेट-दर्द का बहाना बहुत कारगर होता है । उसे डाक्टर भी नहीं कह सकता कि सच है कि झूठ कोई थर्मामीटर थोड़े ही है पेट दर्द नापने का । यह नहीं है कि मुझे बिमला याद नहीं आई, याद आई बिमला उसकी बड़ी-बड़ी शर्मीली आँखें, उसका नर्सिंग होम में बलि का बकरे सा चेहरा मेरी नींद हराम करता रहा बरसों तक। मगर मैं उसे दिल के अन्धेरे में धकेलता रहा था । अपनी कसमें जो मैंने बिमला को दी थी, मैं कब, कैसे, भूल गया सचमुच आज तक मुझे उसका अफसोस है ।

     अब पचास पार कर जब इस शहर में कर्नल बन कर आया तो ननिहाल से अनेक लोग मिलने आते रहे कुछ फौज में भरती होने की सिफारिश लेकर कुछ महज पुराने रिश्ते नए करने तो मुझे बिमला की याद आई । पर मैं किससे पूछता? बिमला तो विधवा माँ की अकेली बेटी थी, न भाई, न बहन । एक दिन मैंने ननिहाल के गाँव जाने की ठानी । ठानी क्या पहुँच ही गया फौजी जीप में । मेले जैसा माहौल हो गया था ननिहाल में। लगभग सारा गाँव उमड़ पड़ा था मुझसे मिलने । वैसे भी मैंने गाँव के लगभग दस-बारह गबरू जवान फौज में भरती करवा दिए थे ना एक ही साल में । मेरे छुटके मामा गाँव वालों से बतिया रहे थे । गाँव के अनेक जवान जहाँ आगे फौज भरती की आशा से जमा थे । वहीं अनेक अधेड़ बुजुर्ग, औरत-मरद, गाँव की बेटी के होनहार सपूत से मिलने आर्शिवाद देने पहुँचे थे । मेरी आँखें बार-बार फूलाँ मौसी बिमला की माँ को ढूँढ रही थीं । अधेड़ तो मौसी मेरी जवानी में ही थी अब तो बूढ़ी-फूस हो गई होंगी । मेरा दिल किया किसी से पूछूँ पर अपनी पुरानी बात याद कर हिम्मत नहीं हुई । दो-तीन घंटे यूँ ही बिता कर मैं जीप में बैठ कर लौट रहा था कि फूलाँ मौसी, बूढ़ी-फूस फूलाँ मौसी मुझे एक पेड़ के नीचे खड़ी दिखाई दी । मुझे लगा कि जैसे वह मेरे इन्तजार में खड़ी थी । मैंने ड्राईवर को जीप रोकने को कहा और जीप से उतर कर मौसी के पास पहुँचा और उनके पैर छूते हुए कहने लगा कि मौसी अशीर्वाद दो। मगर फूला मौसी ने पैर पीछे हटा लिए । जब सिर ऊपर उठाया तो देखा कि मौसी मुझे अजीब निगाह से देख रही थी । उसके बाएं हाथ में एक लाठी थी जिसके सहारे वह खड़ी थी, अचानक उसका दायां हाथ ऊपर उठा, मुझे लगा कि वह मेरे सिर पर हाथ रखकर आर्शीवाद देना चाहती है, मगर ये क्या हुआ कि दाएं हाथ का एक जोरदार थप्पड़ मेरे बाएँ गाल पर पड़ा । इससे पहले मैं संभलता फूला मौसी लाठी टेकती हुई झाडिय़ों में गुम हो चुकी थी । सुखबीर मेरे मामा का बेटा जो अब तक मेरे पास आ खड़ा हुआ था मेरे कंधे पर हाथ रख कर बोला, ''रमेश! ये फूलाँ मौसी नहीं उसकी पगली बेटी बिमला है । अगर उस वक्त धरती फट जाती और मैं उसमें समा जाता तो मुझे कोई अफसोस नहीं होता ।
श्याम सखा श्याम शब्दांकन #Shabdank Shyam Sakha Shyam Moudgil

श्याम सखा 'श्याम' 

कवि, शायर और कहानीकार
निदेशक - हरियाणा साहित्य अकादेमी
विस्तृत परिचय
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दो कवितायेँ - अनुपमा तिवाड़ी

, by शब्दांकन संपादक

अनुपमा तिवाड़ी 

युवा कवियित्री व सामाजिक कार्यकर्ता, जयपुर ( राजस्थान)
एम ए ( हिन्दी व समाजशास्त्र ) तथा पत्रकारिता एवं जनसंचार में स्नातक ।
पिछले 24 वर्षों से शिक्षा व सामाजिक मुद्दों पर काम करने वाली संस्थाओं में कार्य रही हैं। वर्तमान में अज़ीम प्रेमजी फ़ाउंडेशन राजस्थान में संदर्भ व्यक्ति के रूप में कार्यरत ।
देश की विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में अनेक कवितायें व कहानियाँ प्रकाशित। प्रथम कविता संग्रह "आईना भीगता है" बोधि प्रकाशन जयपुर से 2011 में प्रकाशित ।

बहुत हुआ अब


बस करो !!
बहुत हुआ अब
खत्म नहीं होती क्रूरता,
आदम की।
कहते हैं, मृत्यु के बाद सब खत्म।
पर यह खत्म कब होगा ?
सिर काट कर ले जाना भी किसी देशभक्त का
अपने को देशभक्त कहलवाने के लिए क्रूर हँसी जैसा है।
विजय पताका फहराने के समान है।
वो आदम, सिर काट कर ले जा सकता है
पर, मृत्यु के बाद भी
एक माँ को सिर चाहिए अपने बेटे का
एक पत्नि को अपने पति का
एक बच्चे को अपने बाप का।
आदम, बलात्कार कर फेंक सकता है
किसी स्त्री देह के टुकड़े, जंगल में
जो मृत्यु के बाद भी शिनाख्त न कर पाए उसकी
ओह ! इंसान तुम धरती पर आओ
तुम्हारे चोले बिक रहे हैं,
यहां बाजार में
कुछ सस्ते, कुछ महंगे।
चोले के अंदर का आदमी मार सकता है, हिस्सा
बच्चों, दलितों, आदिवासियों, गरीबों और स्त्रियों का
चमकाता है वो हर दिन चेहरा
खून पी - पीकर
पर दिल की कालिमा उसके चेहरे पर आती जाती है
तुम देखना
ज़रा गौर से उसका चेहरा ।

लिखो फिर से नई इबारत


लिखो फिर से
नई इबारत,
अपने होने की।
जांचते रहना उसे,
जो लिखा
तुमने अभी तक।
क्योंकि कहीं - कहीं जो तुमने बोला
उसे लिखा नहीं
लिखना होता है
सदैव बाद में
लिखा, प्रमाण होता है।
यह जिंदगी भी कुछ ऐसी ही है
तुम बोलते हो
यह लिखती है
दिन - दिन
दर, पन्ना - पन्ना
जिंदगी के पन्नों को लोग बाँचते हैं।
इसलिए अपने बोलने से ज्यादा
इसे लिखने देना
चिंता मत करना
यह तुम्हारे संकेत भर को समझ लेगी
वह गलत कभी नहीं लिखेगी
वह जिंदगीनामा लिखती है।
चुप रहती है
पर, बहुत बोलती है।

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वे और उनकी बातें - अखिलेश्वर पांडेय की कवितायेँ

, by शब्दांकन संपादक

अखिलेश्वर पांडेय
Akhileshwar-Pandey अखिलेश्वर पांडेय शब्दांकनजन्म : 31 दिसंबर 1975
कादम्बनी, कथादेश, पाखी, साक्षात्कार, प्रभात खबर, अमर उजाला, दैनिक जागरण, दैनिक भाष्कर, हरिगंधा, मरुगंधा आदि पत्र-पत्रिकाओं में कविताएं, कहानियां, लघुकथा, लेख, टिप्पणी व समीक्षाएं प्रकाशित. पटना व भोपाल आकाशवाणी केंद्र से कविता पाठ व परिचर्चा प्रसारित. संप्रति ‘प्रभात खबर’ जमशेदपुर में मुख्य उप संपादक.
संपर्क : प्रभात खबर, ठाकुर प्यारा सिंह रोड, काशीडीह, साकची, जमशेदपुर (झारखंड), पिन- 831001
मोबाइल: 08102397081

वे और उनकी बातें

उनको फल है इतना प्रिय
देखते हैं भाग्यफल
कहते हैं-
आदमी का आदमी बने रहने को
निष्काम कर्म जरूरी है
पर खुद हर काम करने के बाद करते हैं फल की चिंता
उनको पसंद है
एक अनार सौ बीमार वाले अनार
अंगूर खट्टे हैं वाले अंगूर
वे रोमांचित होते हैं
पृथ्वी के नारंगी जैसी होने की बात पर
हंसते हुए कहते हैं-
न्यूटन को सेब के बगीचे में बैठना अच्छा लगता था.


कविता

कविता नहीं बना सकती किसी दलित को ब्राहमण
कविता नहीं दिला सकती सूखे का मुआवजा
कविता नहीं बढा सकती खेतों की पैदावार
कविता नहीं रोक सकती बढती बेरोजगारी
कविता नहीं करा सकती किसी बेटी का ब्याह
कविता नहीं मिटा सकती अमीरी-गरीबी का भेद
कवियों!
तुम्हारी कविता
मिट्टी का माधो है..
जो सिर्फ दिखता अच्छा है
अंदर से है खोखला..!
कवियों!
तुम्हारी कविता
खोटा सिक्का है..
जो चल नहीं सकता
इस दुनिया के बाजार में..!


मास्क वाले चेहरे

मैं अक्सर निकल जाता हूँ भीड़भाड़ गलियों से
रोशनी से जगमग दुकाने मुझे परेशान करती हैं
मुझे परेशान करती है उन लोगों की बकबक
जो बोलना नहीं जानते
मै भीड़ नहीं बनना चाहता बाज़ार का
मैं ग्लैमर का चापलूस भी नहीं बनना चाहता
मुझे पसंद नहीं विस्फोटक ठहाके
मै दूर रहता हूँ पहले से तय फैसलों से
क्योंकि एकदिन गुजरा था मै भी लोगों के चहेते रास्ते से
और यह देखकर ठगा रह गया कि
मेरा पसंदीदा व्यक्ति बदल चुका था
बदल चुकी थी उसकी प्राथमिकताएं
उसका नजरिया, उसके शब्द
उसका लिबास भी
लौट आया मैं चुपचाप
भरे मन से निराश होकर
तभी से अकेला ही अच्छा लगता है
अच्छा लगता दूर रहना ऐसे लोगों से
जिन्होंने अपना बदनुमा चेहरा छिपाने को
लगा रखा है सुंदर सा मास्क



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समंदर-सी आवाज - भरत तिवारी

, by शब्दांकन संपादक

संगीत; ये शब्द ही कितना सुरीला है शायद आपको याद ना हो कि वो कौन सा गाना या ग़ज़ल या गायक था जो आप के दिल में सबसे पहले उतरा था और अगर याद है तो ये बात मैं दावे के साथ कह सकता हूँ कि वो आज भी दिल के उसी कोने में बैठा होगा – कभी ना जाने के लिये .

मै छोटा बच्चा था तब कोई ६ – ७ साल की उम्र होगी एक छोटे से शहर में रहता था बाकी बच्चों की तरह मेरी भी अपनी बदमाशियाँ थी और मुझे भी संगीत सुनना अच्छा लगता था. घर में एक रिकोर्ड प्लेयर था बड़े सारे रिकार्ड भी थे. पिता जी को अक्सर ही अपनी सरकारी नौकरी के सिलसिले में राजधानी जाना पड़ता था. ये सुनते ही की पापा लखनऊ जा रहे हैं खुशी यो छलाँग मार कर अंदर कूद जाती थी कि जब तक रात में पिता जी वापस ना आ जायें वो कुछ नहीं करने देती थी सिवाय इंतज़ार के यहाँ तक की गली में खेलने का भी मन नहीं होता था .

खैर रात के ९ बजे पिताजी वापस आये लखनऊ से, उनके आने के बाद रुकते नहीं बनता था बस ये जल्दी लगी रहती थी कि आज कौन सा रिकॉर्ड लाये है पापा . उस रात रिक्शे पर ३ बड़े बड़े डब्बे रखे थे , अब तो साहब दिल निकल कर बाहर खुशी ने भी बाहर छलाँग लगायी और जा चढ़ी रिक्शे पर. HMV लिखा था तीनो डिब्बों पर.

रात में पापा ने कहा कि सुबह ही खुलेगा ये सब अभी तो बस आप सो जायें उस आवाज़ में जिसका मतलब होता था कि जवाब नहीं देना है बस सुने और करें

अब जब सुबह बैठक में डिब्बे खुले और उनके अंदर का सब सामान फिट हुआ और तो सामने था नया रिकॉर्ड प्लेयर जिसके साथ २ स्पीकर अलग से थे . नया रिकॉर्ड भी आया था उसे प्ले किया गया. और जो आवाज़ उसमे से निकली उसे सुन कर लगा कि कभी सुनी तो नहीं है ये आवाज़ लेकिन ऐसी आवाज़ कि बस मैं डूब गया उसमे. रिकॉर्ड का नाम था “दि अनफोरगेटेबलस्” और गायक थे “जगजीत सिंह” कब और कैसे वो एक ६ साल के बच्चे के इतने प्रिय हो गये ये तो मुझे भी नहीं पता बस इतना पता है कि उसके बाद उनकी आवाज़ से जो मुहब्बत हुई वो अब मेरे साथ ही जायेगी.

उम्र बढती गयी रिकोर्ड्स आते गये फ़िर कैसेट्स का जमाना आ गया और कैसेट प्लेयर से ज्यादातर उनकी ही आवाज़ आती रहती थी. जगजीत ना आये होते अगर मेरी ज़िंदगी में तो मैं शायद कभी भी गज़ल प्रेमी ना बनता. मेरे लिये ग़ालिब एक नाम है जगजीत जी का ठीक वैसे ही जैसे निदा फाज़ली, सुदर्शन फकिर ... आप बुरा ना माने लेकिन सच है ये ... मै इन सबको और बाकियों को जिनके लिखे को जगजीत जी ने गाया सिर्फ इसलिए ही जानता हूँ.
फ़िर जब दिल्ली में बसेरा हो गया और एक सुबह अखबार में पढ़ा की वो यहाँ सिरीफोर्ट में जगजीत आने वाले हैं तो कि वो यहाँ गायेंगे, अब जाने कहाँ कहाँ से पैसे निकाले टिकट खरीदा और सुना उनको. उनके सामने यों लगा कि कोई मखमल का इंसान मखमल के गले से अपनी मखमली आवाज़ के घागे पूरे हाल में फैला रहा हो और भी बंध गये हम उस रात, फ़िर कोई मौका नहीं गया कि वो यहाँ दिल्ली में आयें और हम उन्हें ना सुनें.

दिल्ली के सिरीफोर्ट ऑडिटोरियम में २६ फरवरी २०११ को उनका ७०वां जन्मदिन और उनके सगींत जीवन के ५० वर्ष पुरे होने की खुशी में कांसर्ट थी. पंडित बिरजू महाराज और गुलज़ार इस मौके पर उनके साथ स्टेज पर थे . एक डाक्यूमेंट्री भी दिखायी गयी थी उनके संगीत के सफ़र की और आँखें खुशी से नम हो गयी थी देख कर क्या पता था कि उस दिन उन्हें आखिरी बार देख रहा हूँ , शायद दिल्ली में वो उनका आखरी कार्यक्रम था.

सात महीने ही बीते थे बस, सर्दियाँ आने को थीं और इस मौसम ने दिल्ली में गुलबहार हो जाती है जगजीत जी का कोई ना कोई प्रोग्राम दिल्ली में ज़रूर होता, लेकिन १० अक्तूबर २०११ उनके हमसे दूर जाने की खबर ले कर आया और मेरी जुबान से बस इतना ही निकला कि
किसी गफ़लत में जी लूँगा कुछ दिन
तेरे गीतों में मिल लूँगा कुछ दिन
अभी आयी है खबर, बहुत ताज़ा है
अभी अफवाह समझ लूँगा कुछ दिन

कोई दिन नहीं जाता जब उनको ना सुना जाये और जायेगा भी नहीं. आज भी जगजीत जी उस सात साल के बच्चे के दिल के उसी कोने में बैठे हैं – कभी ना जाने के लिये . 
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मेरे फिल्मी रिश्ते - राजेन्द्र यादव

, by शब्दांकन संपादक


मेरी तेरी उसकी बात

मेरे फिल्मी रिश्ते - राजेन्द्र यादव 

(सम्पादकीय, 'हंस' फरवरी 2013) 
     हम लोगों ने तय किया कि संजय सहाय की फिल्मी जानकारियों और अनुभवों का लाभ उठाते हुए भारतीय सिनेमा के सौ साल पर एक विशेषांक निकाल डाला जाए. हालांकि सैकड़ों पत्रिकाएं ऐसे विशेषांक निकाल रही हैं या निकालने की घोषणा कर चुकी हैं, लेकिन संजय चूंकि जगह-जगह देशी-विदेशी फिल्मों का फेसिटवल कराते रहे हैं, इसलिए वे जो निकालेंगे वो अपने ढंग का अलग ही होगा. स्वयं उनकी कहानी पर गौतम घोष ने ‘पतंग’ नाम से फिल्म बनार्इ थी और अनेक फिल्मी हसितयों से उनके व्यक्तिगत परिचय रहे हैं. विदेशी फिल्मों का तो विलक्षण संग्रह उनके अपने पास है. इस मामले में उनके दूसरे जोड़ीदार मेरी जानकारी में सिर्फ ओम थानवी हैं.
बासु मन्नू की कहानियों पर फिल्में और सीरियल बनाते रहे और उधर हमारी दोस्ती एक अलग ही धरातल पर चलती रही.

     यह आयोजन 'रजनीगंधा’ फिल्म के प्रदर्शन के सौ दिन पूरे होने पर किया गया था. फिल्म लगातार सिनेमा हाउसों में सौ दिन से चल रही थी और लोग दिल खोल कर तारीफ कर रहे थे. आयोजन बंबर्इ के जुहू बीच पर 'सन एंड सैंड होटल में समुद्र के सामने की ओर था. निर्माता सुरेश जिंदल के साथ बासु चटर्जी और लेखिका मन्नू इस आयोजन के मुख्य आकर्षण-केंद्र थे, इसलिए फिल्मी और गैर-फिल्मी लोगों से घिरे हुए थे. 'सारा आकाश के बाद यह बासु की दूसरी फिल्म थी. सुरेश जिंदल ने 'रजनीगंधा’ के बाद 'शतरंज के खिलाड़ी’ बनार्इ और एटनबरो की ‘गाँधी के निर्माण में सहयोग किया था. कमलेश्वर मुझे एक मेज़ पर बैठा कर खुद अपने जनसंपर्क अभियान में मिलजुल रहा था. हर तरफ लोग गिलास उठाए बहसों और चुटकुलों पर झूम रहे थे. अचानक मेरी मेज पर एक साहब आए और बोले कि क्या मैं यहां बैठ सकता हूं. मैंने देखा देवानंद थे. उन्होंने अपना परिचय देते हुए कहना शुरू किया कि राजेन जी, मैं एक बार जिससे मिल लेता हूं, उसे भूलता नहीं हूं. आप मुझे दस साल बाद भी फोन करेंगे तो मैं आपका नाम लेकर ही जवाब दूंगा. इसके बाद वे तरह- तरह की बातें बताते रहे. फिर अचानक उन्होंने अपने सिर के बाल खींचते हुए मुझसे पूछा कि ये बाल आपको नकली लगते हैं; क्या मैंने इन्हें काला रंग लिया है? आप गौर से देखकर बताइए. वे बार-बार मुझसे तस्दीक कराना चाहते थे कि उनके बाल असली हैं और रंगे नहीं गए हैं. मैं मजा ले रहा था. बैरा आ कर उनके गिलास को बार-बार भर जाता था. बातों-बातों में मैंने पूछा कि जिस तरह हम तीनों - यानी मैं, मोहन राकेश और कमलेश्वर - ने कथा-साहित्य को नया मुहावरा दिया है, उसी तरह आप तीनों - यानी देवानंद, राजकपूर और दिलीप कुमार - ने भी सिनेमा को नर्इ पहचान दी है. इस पर वे सोचते रहे, जवाब नहीं दिया. शायद वे साहित्य से उतने परिचित नहीं थे. उसके बाद कभी देवानंद से मेरी मुलाकात नहीं हुर्इ और न इस बात की पुषिट करने का मौका मिला कि वे मुझे भूल गए हैं या पहचानते हैं. हमलोग कमलेश्वर के यहां ठहरे थे. अगली ही शाम कमलेश्वर के यह बासु का खाना था. खाने के बाद मन्नू को गायत्री भाभी के जिम्मे छोड़ कर हमलोग कार से मटरगश्ती करने निकल पड़े. रात के ग्यारह- बारह बजे का समय रहा होगा. रास्ते भर बासु और कमलेश्वर मुझे समझाते रहे कि अब मैं बंबर्इ आ जाऊं और फिल्मों के लिए कहानियां लिखूं. वे दोनों मेरी भरपूर मदद करेंगे. यही नहीं, साल-भर के लिए मेरे रहने की व्यवस्था भी वे ही कर देंगे. न चले तो साल-भर बाद लौट जाऊं. वे इतने प्यार और आग्रह से मुझे समझा रहे थे कि एक बार तो मैं सचमुच ही विचलित होने लगा, लेकिन फिर तय किया कि यह मेरी दुनिया नहीं है. लौटते हुए उनसे कहा कि मैं सचमुच आप जैसे दोस्तों का आभारी हूं कि मुझे लेकर आप इस तरह सोचते हैं और इतना कुछ करना चाहते हैं, मगर मुझे लगता नहीं है कि मैं यहां आकर सफल हो पाऊंगा, इसलिए माफी चाहता हूं. वह रात आज भी मेरे दिमाग में खुदी हुर्इ है जब कमलेश्वर गाड़ी चला रहा था और बगल में मैं था, पीछे बासु. दोनों ही प्यार भरे आग्रह से मुझे अपनी दुनिया में शामिल करना चाहते थे और एक साल का सारा बोझ उठाने को तैयार थे.

     "फिल्मी दुनिया से मेरा सबसे पहला संपर्क 'सारा आकाश’ के दौरान हुआ. अरुण कौल, बासु इत्यादि ने एक फिल्म फोरम बनाया हुआ था और उसकी ओर से वे पूना के एनएफडीसी से 'सारा आकाश के लिए लोन स्वीकृत करवा चुके थे. बासु उसी सिलसिले में मुझसे मिलने शक्तिनगर में आए थे. वे दरियागंज के फ्लोरा होटल में रुके थे. 'सारा आकाश के अनुबंध की सारी बातें हमने शक्तिनगर में की. फिल्म छोटे बजट की थी, इसलिए मुझे केवल दस हजार रुपये कहानी के दिये गए. अब पटकथा का सवाल था. फ्लोरा होटल में शाम को मित्रों के साथ बैठे कमलेश्वर ने छाती ठोकते हुए कहा कि इस फिल्म की पटकथा मैं लिखूंगा. उसे टीवी में काम करने का अनुभव था और 'परिक्रमा वाला धारावाहिक अभी शुरू नहीं हुआ था. बाद में कमलेश्वर ने जो पटकथा भेजी उस पर बासु ने जगह-जगह अपनी टिप्पणियां दी थीं. उनका कहना था कि यह फिल्म की पटकथा नहीं है. सिर्फ उपन्यास को जगह-जगह से विस्तार दे दिया गया है. इसके बाद उन्होंने स्वयं पटकथा लिखी. कमलेश्वर की लिखी सिक्रप्ट आज भी मेरी फाइलों में सुरक्षित रखी है.


     'सारा आकाश’ में एकदम नर्इ अभिनेत्री मधुछंदा को बासु ने चुना. वस्तुत: वे पहले पूना फिल्म इंस्टीट्यूट की शबाना आज़मी को लेना चाहते थे, मगर कोर्स पूरा होने तक शबाना कहीं बाहर काम नहीं कर सकती थीं. नायक के लिए उन्होंने चुना मासूम से लगने वाले राकेश पांडे को. भाभी के रूप में तरला मेहता थीं और पिता की भूमिका कर रहे थे ए के हंगल. बासु ने लोकेशन के तौर पर राजामंडी वाला हमारा पुश्तैनी घर ही चुना था. और इस बात पर बहुत प्रसन्न थे कि उन्हें कोर्इ अतिरिक्त सेट नहीं लगाना पड़ा. फिल्म जब पूरी होकर मुझे दिखार्इ गर्इ तो पहली बार मुझे बिल्कुल ही पसंद नहीं आर्इ. क्योंकि मेरे दिमाग में उपन्यास था और वे जगहें थीं जहां वह घटित हुआ था. समर राजामंडी बाजार से निकलता और अचानक ही अगले सीन में सुभाष पार्क जा पहुंचता या जिस कमरे से प्रभा बाहर निकलती उसके बाद वास्तव में लोहे की जाली वाला एक खुला आंगन था. मगर वह जा पहुंचती हमारे नये बने मकान के ड्राइंगरूम में. ये झटके मुझे फिल्म को पूरी तरह समझने में बाधक थे. बासु मन्नू की कहानियों पर फिल्में और सीरियल बनाते रहे और उधर हमारी दोस्ती एक अलग ही धरातल पर चलती रही. 'सारा आकाश’ पर विस्तार से विचार-विनिमय के लिए वे एक बार शक्तिनगर में हमारे यहां ही ठहरे. छह-सात दिन रुके. हमलोग रोज शाम को बोतल निकाल कर बैठ जाते. शुरू के उत्साह में मन्नू ने पहले दो-एक दिन तो तरह-तरह के सलाद और नमकीन दिये. तीसरे या चौथे दिन हमलोग केवल भुने चने के साथ दारू पी रहे थे. मैंने बासु को बताया कि आपके लिहाज से मन्नू कुछ बोलती नहीं है मगर उसे घर में यह दारूबाजी बिल्कुल पसंद नहीं है. गर्मी के दिन थे. नंगे बदन लुंगी लपेटे बासु फर्श पर बैठे थे. प्रसन्न हो कर एकदम लेट गए और बोले, अहा अब मैं बिल्कुल ऐट होम महसूस कर रहा हूं. यानी उनके घर पर भी यही होता था. मूलत: उनका परिवार मथुरा का रहने वाला था और किशोर साहू आगरा में उनकी शिक्षा हुर्इ थी. कुछ लड़के मिलकर साइकिलों पर फिल्में देखने आगरा आते और वापस लौट जाते. चूंकि मेरे और उनके प्रारंभिक विकास की संस्कृति एक जैसी ही थी इसलिए बहुत जल्दी हमलोगों के तार आपस में जुड़ गए. वे मस्तमौला, खाने-पीने वाले जिंदादिल इंसान थे. जिन दिनों 'सारा आकाश की शूटिंग चल रही थी, हमलोग रोज ही शाम को कुछ दोस्तों के साथ बैठते थे. संयुक्ता के साथ हुर्इ घटना का जिक्र मैं पहले भी कर चुका हूं. संयुक्ता बेहद ही खूबसूरत और विदुषी लड़की थी. उसने संस्कृत और भाषा विज्ञान में एमए किया था और बाद में जर्मन डिप्लोमा भी किए बैठी थी. बाद में उसने लद्दाखी भाषा सीख कर लेह में वहां की लड़कियों के लिए अपने साधन से एक स्कूल भी खोला और वह अक्सर वहीं रहने लगी. डा. लोठार लुत्से के साथ मिल कर उसने ब्रेख्त के नाटक का अनुवाद भी किया था. पूरी तरह अंग्रेजी वातावरण में पली-बढ़ी संपन्न घराने की संयुक्ता बेहद नखरीली और चूजी लड़की थी. मेरी वह बहुत घनिष्ठ दोस्त हो गर्इ थी. भार्इ-भार्इ कह कर नि:संकोच मन्नू के सामने भी मुझसे लिपट जाती. मन्नू को वह दार्जिलिंग, शिमला और न जाने कहां-कहां घुमाने के लिए ले जाती. वह मुझसे अधिक मन्नू की घनिष्ठ बन गर्इ थी. जिन दिनों 'सारा आकाश की शूटिंग चल रही थी, मैं उसे लेकर आगरा गया. आगरा कैंट स्टेशन पर उतरते ही लोगों ने हमें घेर लिया कि फिल्म की हीरोइन आ गर्इ. उन दिनों आगरा के बच्चे-बच्चे की जबान पर इस फिल्म की शूटिंग के किस्से थे. बाद में जब वह बासु से मिली तो बासु ने खुद कहा कि अगर आपने पहले मिलाया होता तो मैं मधुछंदा को चुनता ही नहीं.

     बहरहाल, फिल्मी दुनिया के साथ मेरा दूसरा संपर्क किशोर साहू के माध्यम से हुआ. उन दिनों 'हंस शुरू नहीं हुआ था और हम अक्षर प्रकाशन से पुस्तकें छाप रहे थे. किशोर की आत्मकथा मुझे अच्छी लगी और मैंने उसे छापने का मन भी बना लिया. किशोर की फिल्मों का मैं पुराना भक्त था. 'राजा, 'कुंवारा बाप, 'आया सावन झूम के इत्यादि फिल्में मैं कर्इ-कर्इ बार देख चुका था. सबसे अंत में किशोर को मैंने 'गाइड में देखा. रमोला किशोर की प्रिय हीरोइन थी. नन्ही-मुन्नी सी चंचल, चुलबुली और समर्पित लड़की. कलकत्ते में मुझे पता लगा कि इकबालपुर रोड के जिस फ्लैट में मैं रहता हूं, उसके चार-पांच मकान बाद ही रमोला भी रहती है. एक रोज उस घर का दरवाजा खटखटाने पर निकली एक काली ठिगनी बुढि़या से जब मैंने रमोला का नाम लिया तो उसने धड़ाक से दरवाजा बंद कर लिया. यह मेरे लिए भयंकर मोहभंग था. क्या इसी रमोला की तस्वीर मैं अपनी डायरी में लिए फिरता था और कविताएं लिखता था.

     किशोर साहू से मिलने से वषो पहले उनके पिता कन्हैयालाल साहू से मेरा लंबा पत्रा व्यवहार रहा है. वे नागपुर के पास रहते थे और सिर्फ किताबें पढ़ते थे. उनके हिसाब से हिंदी में एकमात्रा आधुनिक लेखक किशोर साहू थे. मैंने भी किशोर साहू के दो-तीन कहानी-संग्रह पढ़े थे और वे सचमुच मुझे बेहद बोल्ड और आधुनिक कहानीकार लगे थे. दुर्भाग्य से हिंदी कहानी में उनका जिक्र नहीं होता है वरना वे ऐसे उपेक्षणीय भी नहीं थे.

     आत्मकथा प्रकाशन के सिलसिले में किशोर ने मुझे बंबर्इ बुलाया. स्टेशन पर मुझे लेने आए थे किशोर के पिता कन्हैयालाल साहू. मैं ठहरा कमलेश्वर के यहां था. शाम को किशोर के यहां खाने पर उस परिवार से मेरी भेंट हुर्इ. अगले दिन किशोर मुझे अपने वार्सोवा वाले फ्लैट पर ले गए, जहां वे अपना पुराना बंगला छोड़कर शिफ्ट कर रहे थे. यहां बीयर पीते हुए हमने दिन भर उपन्यास के प्रकाशन पर बात की. वे इस आत्मकथा में दुनिया भर की तस्वीरें खूबसूरत ढंग से छपाना चाहते थे. लागत देखते हुए हमलोगों की सिथति उस ढंग से छापने की नहीं थी. उन्होंने शायद कुछ हिस्सा बंटाने की भी पेशकश की. मगर वह राशि इतनी कम थी कि आत्मकथा को अभिनंदन-ग्रंथ की तरह छाप सकना हमलोगों की सामथ्र्य के बाहर की बात थी. आखिर बात नहीं बनी और मुझे दिल्ली वापस आना पड़ा. वैसे किशोर में एक खास किस्म का आभिजात्य था और वह नपे-तुले ढंग से ही बातचीत या व्यवहार करते थे. शायद वे इस अहसास से मुक्त नहीं थे कि वे घर पर भी ऐसा व्यवहार करें जैसे फिल्म के किसी सेट पर हों. मैं आज भी किशोर साहू की इस आत्मकथा को 'हंस में प्रकाशित करने के लिए उत्सुक हूं.

     हां, तो अब ये विशेषांक आपके हाथों में है. इसमें जो भी अच्छा या महत्वपूर्ण है, उसका श्रेय चाहें तो थोड़ा-बहुत मुझे दे लें, बाकी के लिए संजय सहाय और संगम पांडेय ही जिम्मेदार हैं.
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देश नदी नालो व अन्य चीजों से नही बल्कि संस्कारवान नागरिकों से महान बनता हैं

, by शब्दांकन संपादक

maithili bhojpuri academy मैथिली-भोजपुरी अकादमी

मैथिली-भोजपुरी अकादमी, दिल्ली

कला ,संस्कृति एवं भाषा विभाग,दिल्ली सरकार
समुदाय भवन, पदमनगर, किशनगंज,
दिल्ली-110007
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     दिल्ली सरकार की मैथिली-भोजपुरी अकादमी द्वारा दिनांक 02-03 फरवरी को मैथिली भोजपुरी महिला संगोष्ठी का आयोजन जवाहर लाल नेहरू यूथ सेटर, 219, दीन दयाल उपाध्याय मार्ग, नर्इ दिल्ली-110002 में किया गया। इस संगोष्ठी में दिनांक 02 फरवरी को मैथिली महिला संगोष्ठी में नारी का अस्तित्व एकटा मनोवैज्ञानिक विश्लेषण विषय पर सुश्री स्तुति नारायण, डॉ. भावना नवीन, डॉ. ललिता झा, श्रीमती सरिता दास, श्रीमती संजू दास ,श्रीमती नूतन दास ,श्रीमती विनीता मालिक ने अपने विचारों को रखा। इस अवसर पर सुश्री स्तुति नारायण ने कहा कि महिलाओ को अपने व्यकितत्व को सवित करने के लिये अनेक कसौटियों से गुजरना पडता हैं।  

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     डॉ. भावना नवीन ने अपने वक्तव्य में कहा कि नारी तन से जितनी कोमलांगी है मन से उतनी ही दृढ और यह बात उसने प्रत्येक क्षेत्र में अपनी सफलता सवित करके दिखा भी दिया है संजू दास ने कहा कि समाज ने कितनी भी प्रगति कर ली है लेकिन नारी के प्रति उसके रूढिवादी सोच में कोट खास परिवर्तन आज भी नही दिखार्इ देता। संगोष्ठी में अध्यक्ष के रूप में बोलते हुये डॉ. शैफालिका वर्मा मैथिली की वारिष्ठ साहित्यकार ने कहा कि संगोष्ठी का उद्वेश्य एक विषय के रूप में मनोविज्ञान नही अपितु समाज के विभिन्न क्षेत्रों में काम करने वाली स्त्रीयां जिनमें गृहणी भी शमिल हैं को बुलाया गया हैं जिन्होने उन क्षेत्रों के मनोविज्ञान को भी यहां प्रस्तुत किया। पत्नी पति के अधीन नही रहती अपितु पत्नी और पति एक दुसरे के प्रेम के अघीन रहतें हैं। मां का दायित्व हैं कि वह अपनी बेटी के साथ साथ बेटे को दूध पिलाते हुये संस्कार प्रदान करें। कोर्इ भी देश नदी नालो व अन्य चीजों से नही बल्कि संस्कारवान नागरिकों से महान बनता हैं। संगोष्ठी में अकादमी के सचिव ने कहा कि आप जिससे प्रेम करते है उसे कभी भी पराधीन नही रख सकतें। और यदि कोर्इ पराधीन रखता हैं तो वह उससे प्रेम नही कर सकता हैं कोर्इ भी स्त्री जन्म से चरित्रहीन नही होती हैं। सनिनघ्य अकादमी के उपाध्यक्ष डॉ. गिरीश चन्द्र श्रीवास्तव का रहा।

     03 फरवरी 2013 को भोजपुरी महिला संगोष्ठी में नारी का असितत्व एंगो मनोवैज्ञानिक विश्लेषण पर डॉ.  सुनीता, डॉ. सविता सिंह, सुश्री सोनल सिंह, डॉ. विभावरी, श्रीमती चन्दा राय, श्रीमती सात्वंना द्विवेदीअल्का सिन्हा ने अपने वक्तव्य प्रस्तुत कियें। डॉ. सुनीता ने अपने वक्तव्य में कहा कि स्त्री को ब्रान्ड बना दिया गया हैंडॉ. सोनल सिंह ने कहा कि स्त्री खाली पुरूष के जीवन में सार्थक व आनन्दमय होने के लिये बनी हैंडॉ.  विभावरी ने कहा कि हमारा समाज स्त्री के प्रति संवेदनशील व मानवीय नही बन पा रहा हैं बदलाव की दिशा में महिलाओं को ही इस तरफ कदम उठाना चहिए श्रीमती चन्दा राय ने कहा कि स्त्री पर पावन्दी लगाने से पूरे समाज का ही विकास प्रभावित होता है। संगोष्ठी की अध्यक्ष के रूप में अपने विचार व्यक्त डॉ. अल्पना मिश्रा ने कहा कि बहुत खुशी की बात है कि भोजपुरियों में नवाचार शुरू हो गया है और महिलाओं को इस दिशा में आगे आकर अपने आप को सबित करने की जरूरत हैं इस अवसर पर अकादमी के सचिव ने कहा कि नारी को अब सशक्त करने की आवश्यकता हैं।
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