वक्त रहते - जनसत्ता, चौपाल - भरत तिवारी

, by शब्दांकन संपादक

कच्चा लालच, बदगुमानी, ओछी राजनीति और जुड़े को तोड़ना, ये हमारे वे दुश्मन हैं जो पीठ पीछे वार नहीं करते।
आज एक तरफ मनुवादी अपने गलत को सही सिद्ध करने के लिए कुछ भी करने पर उतारू हैं, तो दूसरी तरफ अमनुवादी भी उन्हें गलत सिद्ध करने के लिए वैसा ही कर रहे हैं। दिक्कत यह है कि देश का प्रगतिशील वर्ग दोनों की बातों से सहमत नहीं होता दिखता। उसे दोनों ही पक्षों में घृणा का स्वर सुनाई देता है। शायद इसलिए कि ये वे स्वर हैं, जिनके खिलाफ होकर ही वह प्रगति कर सका है या जात-पात आदि से ऊपर उठ सका है। उसकी दुविधा तब और बढ़ जाती है, जब उसे यह स्वर अपने बहुत करीब सुनाई देता है। ऐसी स्थिति में अगर वह मनुवाद का स्वर हो और वह न सुने तो उसे अमनुवादी ठहरा दिया जाता है और यदि विपरीत स्वर हो और वह अनसुना कर दे तो उसे मनु समर्थक कहा जाता है।

    इस बात पर ध्यान देना बहुत जरूरी है कि इन दोनों तरह के वादों से सरोकार नहीं रखना ही उसका प्रगति-पथ है, जिसे वह नहीं छोड़ना चाह रहा है। बीते कुछ वर्षों में इन स्वरों की मुखरता ने उसे पथ से विचलित भी किया है। सवाल है कि यह राष्ट्र के लिए कितना घातक हुआ? वह नागरिक जो सर्वधर्म समभाव की नीति पर गर्व से चल रहा था, जिसके लिए राष्ट्र ही धर्म था, जिसे सिर्फ तिरंगे से प्यार था, उसी ने लाल, हरा, नीला, पीला या काला झंडा हाथ में ले लिया, जिसका अब तक वह विरोधी रहा है।

    कई दफा दिमाग को कोरा करके सोचने पर ही स्वस्थ निर्णय सामने आ पाता है। इन मुद्दों पर निष्पक्ष होकर गौर करना जरूरी है, सवालों की तह तक पहुंचना जरूरी है। कच्चा लालच, बदगुमानी, ओछी राजनीति और जुड़े को तोड़ना, ये हमारे वे दुश्मन हैं जो पीठ पीछे वार नहीं करते। गंभीर बात है कि ऐसा वार करने वालों की संख्या इतनी तेजी से बढ़ रही है कि हमारे सही और गलत को समझने की प्राकृतिक इंद्रियबोध-शक्ति उनके प्रभाव से कम होती जा रही है। ये सिद्धहस्त लोग अब इस स्तर के हो गए हैं कि वे बड़ी से बड़ी दुर्घटना को भी ठीक सांप्रदायिक लोगों की तरह जात-पात का जामा पहनाने लगे हैं। यहां यह बताने की जरूरत नहीं है कि ‘जुड़े को तोड़ना’ की नीति से फायदा किसे पहुंचता है।

    कितने पत्ते हमने इन्हें दे दिए हैं खुद से खेलने के लिए! क्या आप जानते हैं कि ये वे लोग हैं, जो इंसान तो दूर, उसकी जाति को भी हिंदू, मुसलिम, सिख, ईसाई आदि की नजर से नहीं, बल्कि सिख बनाम मुसलिम, हिंदू बनाम मुसलिम, सिख बनाम हिंदू, गरीब बनाम अमीर, मराठा बनाम बिहार, दलित बनाम सवर्ण आदि की नजर से देखते हैं। अगर हम उनकी इस नजर को नहीं पहचानते तो किसी भी समस्या का समाधान नहीं निकलने वाला। अब जो ये नया कार्ड हम इन्हें दे रहे हैं ‘मनुवाद बनाम अमनुवाद’ यह तुरुप का पत्ता है, जो ‘जुड़े को तोड़ना’ को कितनी ताकत दे रहा है, इसका हमें शायद अंदाजा नहीं है। इसे खेल कर वे जघन्य अपराधों को भी हमारे सामने ऐसे रख रहे हैं कि वे हमें जघन्य न लगें। आम बातचीत को भी यों तोड़-मरोड़ कर सामने रख देते हैं कि हमारा आपसी सामंजस्य बिगड़ जाए।

    जिस कृत्य से सारे समाज को क्षति पहुंचे, वह हमें अपनी क्षति नहीं लगे, तो सोचिए कि कैसी स्थिति होगी। कोई बात बगैर पूरा संदर्भ दिए अगर अनर्थ के रूप में सुनाई जाए तो क्या होता है? आज वक्त है कि हम इन राजनीतिक ‘वादों’ को दफन करें और एक होकर चलें। यह करना आसान नहीं होगा, क्योंकि इनकी जड़ें बहुत गहरी और कांटों से लैस हैं और उन्हें उखाड़ने में हमें पीड़ा होगी। लेकिन जान लें कि अगर हमने यह पत्ता उनके पास रहने दिया तो आने वाले वक्त में होने वाली दुर्घटना अगर आपके साथ होती है तो आप अकेले होंगे और तब तक बहुत देर हो चुकी होगी।

    भरत तिवारी, शेख सराय, नई दिल्ली
साभार जनसत्ता 31 जनवरी, 2013 "चौपाल"

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