न्याय - शब्दांकन (डॉ० अजय जनमेजय)

, by शब्दांकन संपादक


बाजों के फिर मुंह लगा ,इक चिडिया का खून |
लेकिन पूरे देश में ,जागा एक जुनून ||
फिर चिड़िया की ज़िन्दगी ,लूट ले गए बाज |
पहरेदारों को मगर , जरा न आई लाज |
जरा न आई लाज , लिए फंदा कानूनी |
चाहें सारे लोग , मरें वहशी ये खूनी |
जागा पूरा देश , करे चिंता बिटिया की |
रहे सुरक्षित जान ,देश की हर चिड़िया की ||
डॉ अजय जनमेजय
 

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न्याय - शब्दांकन (प्रो० चेतन)

, by शब्दांकन संपादक

कि सुखनवरों का खून क्यूँ कर ठण्डा हो गया है
दर्द अंगड़ाई नहीं लेता ये क्या हो गया है ?

क़त्ल या हो कोई बे-आबरू तुम्हें क्या मतलब ?
ए खुदा तू ही बता, इन्सां को क्या हो गया है।

कितनी क़ुरबानी चाहते हो कि चमन जल जाए
क़ि नींद टूट जाए तुम्हारी, होश हो गया है। 
प्रो० चेतन प्रकाश 'चेतन'
 

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सियासी भंवर : भरत तिवारी

, by शब्दांकन संपादक

किस हद्द तक राजनीति ग्रसित लोगों के बीच आज का अवाम रह रहा है. हमें लगता रहा कि कद्दावर नेताओं से शुरू हो कर, बीच में धार्मिक आदि रास्तों से हो कर, ये बात छुटभैये नेताओं पर खत्म हो जाती है. हम सब ने अपनी अपनी वैचारिक्तानुसार इस से निपटना भी सीख लिया और इसे “राजनीतिक समझ” का नाम दे दिया. इस समझ का कोई सरोकार पढाई से नहीं है, ये हमें बचपन में ही इतिहास के अध्यापक ने, अकबर पढ़ा कर समझा दिया था. लेकिन हमने इसे पूरी तरह सच नहीं माना और ये नज़र भी आता है जब कोई धर्मगुरु , वैज्ञानिक , अर्थशास्त्री वगैरह, हमारी राजनीती में प्रखर रूप में नज़र आता है.
फ़िर हमें मिले वो, जो हमारी राजनितिक समझ को बढ़ाने के लिये आये , जिन्होंने हमें बताया कि देखिये अमुख जिसे आप ऐसा नहीं मानते हैं वो भी राजनीति कर रहा है, वो साक्ष्यों को सामने रखता गया और हम इस बात को लेकर खुश हुए कि कोई रहनुमा मिला. अलग अलग क्षेत्रों में हमें नए नए रहनुमा मिलते रहे और हमें उस क्षेत्र में होने वाली राजनीति से अवगत कराते रहे. मसलन फिल्मों के क्षेत्र में, जहाँ हमें सिर्फ़ अदाकारी और उससे जुड़ी अन्य बातों से सरोकार था, रहनुमा ने बताया कि ‘स्लम डॉग’ अच्छी नहीं है , छवि खराब करती है, हमने बगैर ये पूछे कि किस छवि की बात करी जा रही है , सच मान लिया. समय समय पर ये रहनुमा प्रकट होते रहते हैं और हमारी समझ को दुरुस्त करते हैं. 

अब बात ये है कि ये विलुप्त क्यों हो जाते हैं ? ये हमने कभी सोचा ही नहीं. गलत. हमें इतना वक़्त ही नहीं दिया जाता कि हम ये सवाल पूछ सकें. अब सवाल ये कि हमारा वक्त हमारी सोच (राजनीतिक-समझ) कौन नियंत्रित कर रहा है . यही बड़ा और अनुत्तरित प्रश्न रहा है   

तमाम देश जब दिल्ली में हुए सामूहिक बलात्कार से दुखी हो , इण्डिया गेट पर पुलिस की लाठियाँ खा रहा था , उस समय ये सारे के सारे रहनुमा नदारद थे. हमने अपनी समझ का प्रयोग (शायद पहली बार) किया और किसी भी मोड़ पर हमें इनकी कमी महसूस नहीं हुई. और बड़े प्रश्न का उत्तर तब मिला , जब इनके परोक्ष या अपरोक्ष रूप से प्रकट होते ही, हम करोणों की समझ को गलत ठहराया गया. 

यहाँ हमारा इन रहनुमाओं की बात ना सुनना और इन्हें दरकिनार करना, बता रहा है कि इनकी पोल खुल गयी है, कि हमारी सोच पर इनका नियंत्रण था, कि ये भी उसी गन्दी राजनीति का हिस्सा हैं, जिनको सिर्फ़ कुर्सी और पैसे का लालच है. 

उम्मीद है कि अब अपनी समझ को हम, रहनुमाओं की बात सुन कर, बगैर सोचे समझे नहीं बदलेंगे. 


भरत तिवारी, पेशे से इंटीरियर डिज़ाइनर, पत्र पत्रिकाओं में कविता, गज़ल व लेखों आदि का सतत स्वतंत्र लेखन.   संपर्क : B-71, शेख सराय फेज़- 1, नई दिल्ली, 110 017. 011-26012386 ई०मेल bharat@tiwari.me

जनसत्ता , २८ दिसम्बर २०१२ , से साभार  http://epaper.jansatta.com/c/627699

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डॉ. रश्मि - दो लघुकथाएँ

, by शब्दांकन संपादक

चिड़ियाँ


खुले आसमान में चिडियों का एक झुंड इठला रहा था. मस्ती में उड़ान भरती चिडियों के मन में उमंगें थीं कि, 'मैं उस आसमान को छुऊँगी' 'मैं उधर उड़ान भरुंगी' 'मैं इन्द्रधनुष में रंग भरुंगी'. तभी उन नादानों की नज़र धरती पर गयी और उनका कलेजा बैठ गया. कुछ बहेलिये तीर लगाकर निशाना साधे थे. कोई शिकारी जाल बिछाकर दाने डाल रहा था. कहीं सोने के पिंजरे सजे थे जिनमे कई तरह की लुभावनी चीजें थीं. सहसा चिडियों को अहसास हुआ कि उनके पंख कतरे जा चुके हैं. अब आसमान खाली है, कोई चिडिया कुलांचे नहीं भर रही


लेखक


लेखक महोदय घर पहुंचे तो भीतर से आती बातचीत कि आवाजें सुन दरवाज़े पर ही रुक गए| 'देखो बहन, ये है इनकी नई छपी किताब|' उनकी पत्नी अपनी सहेलियों को लेखक महोदय कि नई स्व-रचित पुस्तक दिखा रहीं थीं व बडबडा रहीं थीं, 'न जाने इन्हें क्या सूझी कि दोस्तों से कर्जा लेकर ये किताब छपवाई | लोग-बाग़ वाह-वाही करके एक-एक किताब ले जाएंगे और एक पैसा भी न थमाएंगे। यदि कुछ चर्चा-वर्चा हो भी गई तो क्या एक मैडल ही तो पाएंगे |' हाथ नचाते हुए वे आगे फिर बोलीं , 'न जाने ये किस माटी के बने हैं ? दिन पर दिन सोना महंगा होता जा रहा है, इतने रुपयों में तो एक बढ़िया सा हार बनवा लेती | सारी उम्र पहनती और बुढापे में उसके लालच पर बहू से सेवा भी करवा लेती |'

डॉ . रश्मि , 'कबीर काव्य का भाषा शास्त्रीय अध्ययन' विषय में पी-एच .डी . हैं . लेखन व शिक्षण से जुड़ी वो अमर उजाला, दैनिक भास्कर, कादम्बिनी, पाखी, हंस, दैनिक ट्रिब्यून आदि सभी के साथ लघुकथाओं, कविताओं व पुस्तक समीक्षा के लिए सम्बध्ह हैं
शब्दांकन अपना योगदान उनकी दो लघुकथाओं को प्रकाशित कर दे रहा है. 

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मणिका मोहिनी की तीन बेहतरीन गज़लें

, by शब्दांकन संपादक

मणिका मोहिनी एक प्रसिद्ध कहानीकार और कवयित्री है । कविता-कहानी की 15 पुस्तकें प्रकाशित, कुछ वर्षों तक 'वैचारिकी संकलन' हिन्दी मासिक का सम्पादन-प्रकाशन, लगभग 12-13 वर्षों के अन्तराल के बाद अब पुनः लेखन।
“शब्दांकन” अपना योगदान उनकी नयी गज़लों के रूप में दे रहा है ।


जल्द ही उनकी कहानियाँ भी प्रकाशित होंगी ।

गज़ल: मेरी साँसों में तेरे प्यार की गरमाई है
मेरी साँसों में तेरे प्यार की गरमाई है
मेरी  आँखों  में  तेरे रूप की लुनाई है

कहाँ-कहाँ तुझे ढूँढा नहीं इन राहों में
कहाँ-कहाँ से तेरी बात चली आई है

मैं तुझे याद करूँ या न करूँ सच है यह
तेरी खुशबू की लहर हर तरफ लहराई है

तेरी बातों में था जो राजसी-सा याराना
मेरे कानों में मादक गूँज की शहनाई है

तेरे बिंदास रवैये ने मुझे बाँध लिया
तेरी मासूमियत में सागरी गहराई है

तेरा हँसना तेरा गाना तेरा वह अल्हड़पन
सच कहूं जान मेरी जान पर बन आई है

हुआ है क्या मुझे यह कौन बताएगा मुझे
सखा सब दूर हुए तू ही अब हमराही है


गज़ल: मैंने शामिल किया है अपने उजालों में तुम्हें
मैंने शामिल किया है अपने उजालों में तुम्हें
अंधेरे अब नहीं कर पाएंगे गुमराह तुम्हें

तुम्हारी दिल्लगी करने की अदा क्या कहिए
तुम्हारी दिल्लगी की हर अदा वाह वाह तुम्हें

हंसी-हंसी में संवर जाएगी हर बिगड़ी बात
शिकायतों के सिलसिलों की नहीं चाह तुम्हें

तुम्हें आता है उलझना और सुलझना दोनों
किसी मुश्किल की नहीं कोई भी परवाह तुम्हें

मुझे आता नहीं था दिल को तसल्ली देना
मेरी खुशकिस्मती ने चुना है हमराह तुम्हें

अब इस दिल को समझाएं तो समझाएं कैसे
अब इस दिल को समझाएं तो समझाएं कैसे
तेरी तस्वीर से दिल और बहलाएं कैसे

हमारे बीच दूरियां हैं कितने देशों की
तुमसे मिलने को अब आएं भी तो आएं कैसे

तुम्हारे शब्द शब्द, सिर्फ शब्द, और शब्द
कहाँ रखें इन्हें हम दिल में छुपाएँ कैसे

कहते हैं कि कम होता है बंटने से दर्द
तुम्ही कहो लेकिन गैरों को बताएं कैसे

तुम आओगे एक दिन ज़रूर आओगे
इसी उम्मीद में जीते हैं, मर जाएं कैसे





















संपर्क mohinimanika@gmail.com



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लेख: कहीं कुछ कमी सी है - प्रेम भारद्वाज

, by शब्दांकन संपादक


हे मिंग्वे ने लिखा है- ‘जीवन के बारे में लिखने के लिए जीवन को जीना जरूरी होता है.’ 
वर्तमान समय में जो रचनाएं आ रही हैं, वे जीवन के किस रूप से जुड़ी हैं, कितना अपने समय में धंसी हुई हैं, और कितना समाज से संबद्ध हैं, यह अवलोकन का विषय है. वर्ष 2012 का सिंहावलोकन करने पर जो तस्वीर बनती है, वह कथा साहित्य में संख्या के स्तर पर सुखद है, मगर उनका स्तर और स्वर दिल को उत्साह से भर देने वाला शायद नहीं है.

प्रेम भारद्वाज (sam
कहानियों और उपन्यासों की दुनिया में वर्ष 2012 में मुख्य रूप से युवाओं ने ही मोर्चा संभाला. संख्या और स्तर की दृष्टि से युवा लेखकों की कहानियों और उपन्यासों का ग्राफ ऊंचा रहा. बुजुर्ग और वरिष्ठ लेखकों का रचनारत रहना ही उनकी उपलब्धि रही. नामवर सिंह ने कुछ साल पहले यह चिंता व्यक्त की थी, कि उपन्यास कम लिखे जा रहे हैं. उनकी चिंता इस साल दूर होती दिखायी दी, जब एक दर्जन से ज्यादा उपन्यास हिंदी पाठकों के सामने आये. कहानी हो या उपन्यास, कथ्य के स्तर पर उनमें पर्याप्त विविधताएं हैं. शिल्प के प्रयोग भी खुशनुमा हैं. बावजूद इसके कोई भी कृति ऐसी नहीं आयी, जो अपनी मौजूदगी से पाठकों को चमत्कृत कर दे या जो एक नयी लकीर खींचती हो.

पहले बात उपन्यास की. अगर काशीनाथ सिंह के ‘महुआचरित’ को उपन्यास माना जाये, तो यह मान लेना चाहिए कि उम्र के चौथेपन में भी काशीनाथ सिंह शिल्प की पुरानी जमीन को तोड़कर कुछ नया करने की दिशा में सक्रिय हैं  उनका लघु उपन्यास ‘महुआचरित’ अपने कथ्य के स्तर पर भले ही कुछ लोगों को न जंचा हो, उनको उसमें पोर्नोग्राफी का आभास भी मिला हो, मगर वह एक प्रयोग तो है ही. कविता की शैली में उपन्यास लिखने का नया प्रयोग है. वरिष्ठ लेखकों में द्रोणवीर कोहली (कथा-स्पर्श), रमेश चंद्र शाह (कथा-सनातन), गिरिराज किशोर (स्वर्ण मृग) ने अपनी उपस्थिति दर्ज करायी है. महेश कटारे (कामिनी काया कांतरे), प्रदीप सौरभ (देश भीतर देश), नरेंद्र नागदेव (एक स्विच था भोपाल में), मदन मोहन (जहां एक जंगल था), यशोदा सिंह (दस्तक), ने अपने उपन्यासों में अलग-अलग विषय उठाये, जो सामाजिक सरोकार से जु.डे हैं. महेश कटारे अपने उपन्यास में राजा भर्तृहरि के बहाने मौजूदा समय-समाज को टटोलते नजर आते हैं. काफी श्रम से लिखे गये इस उपन्यास की ओर पाठक देर-सबेर जरूर आकृष्ट होंगे. नरेंद्र नागदेव भोपाल गैस त्रासदी के कारणों को तलाशते हैं, तो मदन मोहन के उपन्यास में ठेठ ग्रामीण जीवन में हुए या हो रहे बदलावों का चिट्ठा है. उत्तर प्रदेश के पूर्ववर्ती इलाके के राजनीतिक-सांस्कृतिक यथार्थ को प्रभावशाली तरीके से यह उपन्यास पाठकों के समक्ष रखता है. प्रदीप सौरभ के ‘देश भीतर देश’ में पूर्वोत्तर की व्यथा-कथा है, जिसे पत्रकारीय अनुभवों से बुना गया है. इसमें आभासी दुनिया की भी छौंक है. महुआ माजी के बहुचर्चित उपन्यास ‘मरंग गोड़ा नीलकंठ हुआ’ को रेणु पुरस्कार मिला. वीरेंद्र यादव के शब्दों में ‘इस उपन्यास में महुआ माजी यूरेनियम की तलाश में जुड़ी जिस संपूर्ण प्रक्रिया को उजागर करती हैं, वह हिंदी उपन्यास का जोखिम के इलाके में प्रवेश है.’ अत्यधिक श्रम और शोध के सहारे लिखे गये इस उपन्यास की कुछ लोगों ने शोध प्रबंध का नाम देकर आलोचना भी की है. बिना शोर-शराबे के खामोशी से रचनारत राकेश कुमार सिंह का उपन्यास ‘हुल पहाड़ियातिलका मांझी के जीवन पर आधारित है. आदिवासी समाज के जीवन और संघर्ष का यह महत्वपूर्ण दस्तावेज है. अपनी ताजगी भरी भाषा के जरिये कविता में स्थान बनाने वाले युवा रचनाकार राकेश रंजन का उपन्यास ‘मल्लू मठफोड़वा’ हवा के एक तेज झोंके की तरह है. हाजीपुर क्षेत्र की आंचलिकता लिये हुए यह उपन्यास अपनी समग्रता में पाठकों पर एक जादू सा करता है. युवा कवयित्री नीलेश रघुवंशी का उपन्यास ‘एक कस्बे के नोट्सस्त्री विर्मश के नये द्वार खोलता है. शरद सिंह कस्बाई सीमोन’, कविता मेरा पता कोई और है’ के उपन्यासों में भी स्त्री विर्मश, सह जीवन, प्रेम और सामाजिक संघर्ष के दबाव में भीतर का द्वंद्व अलग-अलग ढंग से अभिव्यक्त हुआ है. इनसे इतर रजनी गुप्त का उपन्यास ‘कुल जमा बीस’ किशोरावस्था पर है और अपने विषय के कारण अहम हो जाता है. स्त्री विर्मश के ‘देह’ अध्याय की महत्वपूर्ण लेखिका बनती जा रही जयश्री राय का उपन्यास ‘औरत जो नदी है’ देह के पार द्वार तक ले जाता है, जहां बेचैनी के आलम का आगाज होता है. मनीषा कुलश्रेष्ठ का उपन्यास ‘शालभंजिका’ उनके ही उपन्यास ‘शिगाफ’ का सा प्रभाव पैदा नहीं करता. एक फिल्मकार नायक को आधार बनाकर लिखे गये इस उपन्यास में खास तरह का आस्वाद जरूर है और आवेग भी. युवा कथाकार प्रियदर्शन मालवीय का उपन्यास ‘घर का आखिरी कमरा’ आजादी के बाद मुसलमानों की आर्थिक-सामाजिक स्थिति में आ रहे बदलाव को रेखांकित करता है. इसमें युवा बेरोजगार को दोहरा दंश झेलना पड़ता है. इसे उसके मुसलमान होने से भी जोड़ा गया है. सरिता शर्मा की कहानियां कम प्रकाशित हुई हैं, मगर उनका पहला उपन्यास ‘जीने के लिए’ आत्मकथा के ज्यादा नजदीक है. शैलेंद्र सागर का उपन्यास ‘एक सुबह यह भी’ वर्तमान समय और राजनीतिक परिदृश्य पर चोट और व्यंग्य है, और एक गंभीर चिंता भी कि आजादी के इतने सालों बाद भी चीजें नहीं बदली हैं.

उपन्यास की तरह कहानी संग्रह के मामले में भी युवा लेखकों की ही धूम रही. जोश पर अनुभव हावी रहा. विजय मोहन सिंह का ‘चाय की प्याली में गेंद’, कृष्ण बिहारी का ‘बाय-बाय’, क्षितिज शर्मा का ‘ढाक के तीन पात’, राजी सेठ का ‘रुको इंतजार हुसैन’, लता शर्मा का ‘देवता बोलते नहीं’, रोहिणी अग्रवाल का ‘आओ मां परी हो जाएं’, जितेन ठाकुर का ‘एक रात का तिलिस्म’ और अनंत कुमार सिंह के ‘ब्रेकिंग न्यूज’ को छोड़ दें तो युवा कथाकारों के संग्रह ही आलोकित विवेचित होते रहे. इस साल अधिकतर युवा कथाकारों के दूसरे-तीसरे कथा संग्रह आये हैं. मगर यहां खुश नहीं हुआ जा सकता कि उन्होंने अपने पिछले संग्रह से इतर इस नये संग्रह में लेखकीय विकास को रेखांकित किया है. आमतौर पर दूसरे-तीसरे कथा संग्रह पर किसी लेखक को ‘ग्रेस’ नहीं मिलना चाहिए. गीतांजलि श्री के संग्रह ‘यहां हाथी रहते थे’ में ‘अनुगूंज’ वाली गूंज नहीं है, न ही मनीषा कुलश्रेष्ठ के ‘गंधर्व गाथा’ में उनका पहले संग्रह वाला लोक तत्व. यही बात चंदन पांडेय के ‘इश्क फरेब’ और नीलाक्षी सिंह के ‘जिनकी मुट्ठियों में सुराख है’ पर भी लागू होती है. नीलाक्षी सिंह की इधर की कहानियां पढ.कर यह आभास होता है कि जैसे वे अपना श्रेष्ठ दे चुकी हैं. अल्पना मिश्र का ‘कब्र भी कैद और जंजीरें भी’ उनका तीसरा कहानी संग्रह है. अल्पना मिश्र की कहानियां उत्पीड़न के खिलाफ मानवीय आंदोलन का पक्ष रखती हैं. पंकज सुबीर महुआ घटवारिन’ में लोक को आधुनिकता के रेशों से जोड़ने का कमाल करते हैं. रवि बुले के संग्रह ‘यूं न होता तो क्या होता?’ में उनकी सिग्नेचर ट्यून मौजूद है. दो युवा कथाकारों राजीव कुमार का ‘तेजाब’ और श्रीकांत दुबे का कहानी संग्रह ‘पूर्वज’ संभावनाएं जगाता है. युवा कहानीकारों में अलग राह पकड़ने वाले राजीव कुमार की कहानियां सामाजिक-राजनीतिक चेतना से संपृक्त हैं. यहां युवा वर्ग का अकेलापन और उसके संघर्ष हैं  अनंत सिंह के ‘ब्रेकिंग न्यूज’ संग्रह की कहानियां समाज के भित्र संदभरें को व्याख्यायित करती हैं. कैसे शहरों का रोग गांवों को भी लग गया है और संवेदनशील अनैतिकता बाजार की आंधी में सब कुछ नष्ट कर रही है. अजय नावरिया के कहानी संग्रह ‘सर सर’ में दलित चिंताएं हैं-अपने सामाजिक संदर्भ में दलितों की मानसिक यंत्रणा का साक्षात्कार इन कहानियों में होता है.

इस वर्ष हिंदी में अनूदित होकर कुछ उपन्यास भी आये, जिन्हें पाठकों की प्रशंसा मिली है. साहित्य अकादमी से प्रकाशित जुवान मैनुवल मार्कोस के उपन्यास ‘गुंतेर की सर्दियां’ का अनुवाद प्रभाती नौटियाल ने किया है. वहीं ‘सिमोन दि बोउवार’ की ‘वेरी इजी डेथ’ का इसी नाम से गरिमा श्रीवास्तव ने अनुवाद किया है, जो स्वराज प्रकाशन ने छापी है. ‘वेरी इजी डेथ’ की कहानी मृत्यु शैय्या पर पड़ी उस मामन की कथा है, जो वृद्ध है और चाहती है कि अपनी बीमारी से निजात पाकर नये सिरे से जीवन का आगाज करे.

कुल मिलाकर इस वर्ष कथा साहित्य का परिदृश्य भरा-पूरा है. कहानी उपन्यास खूब लिखे जा रहे हैं, वे छप भी रहे हैं. मगर बात वहीं आकर फंस जाती है कि साहित्य में कोई नयी लकीर नहीं खींची जा रही है. काल के भाल पर कोई रचना आखिर अमिट निशान क्यों नहीं छोड़ पा रही है?

प्रभात खबर, २३ दिसम्बर २०१२ , रविवार से साभार

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कहानी : प्रेम भारद्वाज : कवरेज एरिया से बाहर

, by शब्दांकन संपादक

जनसत्ता के दीवाली साहित्य विशेषांक 2012 में प्रेम भारद्वाज की कहानी "कवरेज एरिया से बाहर" प्रकाशित हुई है। कहानी चर्चा में है और होनी भी चाहिये , प्रेम भारद्वाज से एक आधुनिक कहानी की उम्मीद थी और वो उसी तरह पूरी भी हुई जिस तरह से पाखी का हर अंक करता है ... "शब्दांकन" अपना योगदान कर रहा है ..... कहानी आपके लिये यहाँ ला कर ..... प्रेम भारद्वाज को कहानी मुहैया कराने के लिये आभार 

   
रथराती प्रत्यंचा पर चढ़ी जिंदगी। उदासी का गर्दो-गुबार। गर्म-सर्द सफ़र। बेरौनक। कुछ हद तक बेमकसद। रिश्तों के रेगिस्तान में सिमटती परछाई।
इन्स्टीन ने लिखा है, जीवन तभी शुरू होता है जब हम खुद से बाहर जीना सीख लेते हैं।
काश! दुनिया का यह महावैज्ञानिक यह भी बता पाता कि खुद से बाहर जीने का मतलब होता क्या है? कई बार खुदऔर बाहरके फांक में फंसी जिंदगी छटपटाती रह जाती है। आदमी हाथ-पैर मारता है। अवरुद्ध कंठ से मदद को तलाशती एक पुकार उठती है। सुनते सब हैं। मगर कोई नहीं सुनता है। और इस तरह आवाजें फ़ना हो जाती हैं... आवाजों के बीच। बस, कहने को ही आवाज भी एक जगह है।
खुका दायरा और जीने की हद है क्या? भीतर से उठे इस सवाल ने दिलो-दिमाग को उलझा दिया। चूक कहां हुई? और क्या वह वाकई चूक ही थी?
मैं खुद से बाहर ही तो जीता रहा था। जीवन शुरू हुआ या नहीं, यह तो यकीनी तौर पर नहीं समझ पाया मगर जीवन, समाज, परिवार और अपने चाहने वालों से बाहर कर दिया गया।
ब मेरा किसी भी चीज में जी नहीं लगता। लोग अच्छे नहीं लगते। सबसे मोहभंग हो गया, सत्ता-व्यवस्था, संगठन, रिश्ते-नाते, दोस्त सबसे। म्मीद ने बहुत पहले दामन छोड़ दिया था। अब बारी लोगों की है। लेकिन विरोधाभास यह है कि बेचैनी के पलों में मैं लोगों का साथ भी चाहता हूं।
मैं अच्छा इंसान नहीं। शायद बुरा हूं। ऐसे लोगों की  कमी नहीं जो मुझे आदमी ही नहीं मानते। मुझसे नफ़रत करते हैं। घृणा भरी आंखों से देखते हैं मेरी ओर। कई बार वे आंखें आत्मा को बेध जाती हैं। यह सब यूं ही नहीं है। इसकी माकूल वजहें हैं।
मैं हत्यारा हूं। मैंने बीस हत्याएं की हैं। ये हत्याएं मैंने एक निजी सेना में रहते हुए संगठन के लिए कीं। प्रतिशोध लेने के वास्ते। पकड़ा नहीं गया। कानून मुझे गिरफ्त में नहीं ले सका। ये हत्याएं आम हत्याओं से इसलिए अलग थीं, क्योंकि इनके पीछे स्वार्थ नहीं, संगठन की प्रतिबद्धता थी। वह खुदसे बाहर का जीवन प्रयोजन था। मगर थी तो हत्याएं हीं!
ब लगता था मैं एक बड़ा कार्य कर रहा हूं। अपनी जाति-समाज का महान रक्षक हूं मैं। ऐतिहासिक योद्धा। नक्सली संगठन मेरी जाति वालों पर हमला बोलते थे और गांव के गांव, लोगों को मार कर खलिहान कर देते थे। एक रात, एक गांव में सौ लोगों को मार डाला उन्होंने। गांव में सिर्फ़ बच्चे और विधवाएं ही बचे रह गए। मरने वालों में मेरे अपने मामा थे। मामा से बेहद लगाव था, बहुत मानते थे मुझे। बचपन से लेकर अब तक ढेर सारी स्मृतियां जुड़ी थीं उनसे...। मामा की मौत ने मेरे भीतर प्रतिशोध की ज्वाला भड़का दी...। तब मैं शहर में रहकर पढ़ाई करता था। एम.ए. के फाइनल इयर में था। मार्क्स मार्क्स, लेनिन, एंगेल्स को पढ़ता था। क्लास को समझ रहा था। अचानक इस घटना ने मुझे क्लास से कास्ट की ओर धकेल दिया। अब मेरे लिए वर्ग नहीं, अपनी जाति अहम थी। उसकी रक्षा मेरा फ़र्ज था। मैं जाति की लड़ाई में कूद पड़ा। अपनी जाति की निजी सेना कमांडर बन गया, सिर्फ़ इस योग्यता के आधार पर कि मैं एक खास जाति से संबंध रखता हूं और मेरे भीतर दुश्मन जाति से प्रतिशोध की आग, ज्वाला बन चुकी है। ज्वाला इस कदर भयावह थी कि मैं अपने हाथों से दुश्मन जाति के लोगों की हत्या कर अपने मामा की हत्या का बदला लेना चाहता था। वैसे भी इस देश में हत्या के लिए किसी योग्यता की जरूरत नहीं पड़ती।


मैं अपने जातीय संगठन यानी रणवीर सेना के तीन जनसंहारों में शरीक हुआ। अपने हाथों से बीस हत्याएं कीं। ऐसा करने से पहले दस्ते के बाकी साथियों के साथ मैंने भी खूब शराब पी थी। पता नहीं किसने यह थ्योरी दी थी कि शराब पीने से हत्या करने का काम आसान हो जाता है। वैसे मुझको लगता था कि अगर मैंने शराब नहीं भी पी होती तो भी किसी अनजान की हत्या करने में मुझे जरा भी हिचक नहीं होती।
मुझे ठीक तरह से याद है कि दलित जाति के प्रति मेरे भीतर घृणा के भाव का बीजारोपण तब हो गया था, जब  मैं बारहवीं में पढ़ता था। मेरे गांव में एक दलित नौकर काम करता था, झुलना। नाच में नाचता था। लौंडा नाच में। एक दिन दालान के अंधेरों में मैंने उसे मेरी बहन सलोनी के साथ आलिंगनबद्ध देख लिया। मेरा खून खौल गया। मगर मैं चुप रहा। दिल से नहीं, दिमाग से काम लेना जरूरी था। तब तक मेरे दोस्तों की अच्छी-खासी मंडली बन चुकी थी। एक दोस्त था अनवर। उसकी जीप में झुलना को बिठाकर तीन अन्य दोस्तों के साथ उसको नाच दिखाने के बहाने मढौरा ले गया। वहां एक सुनसान बांसवाड़ी में उसके भेजे में तीन गोलियां दाग दी ‘‘साला चमार... हमारी बहन को फंसाने की हिम्मत का इनाम है यह। अपनी औकात भूलने का यही अंजाम होता है...’’
सी बांसवाड़ी में उसकी लाश के दो टुकड़े किए। सिर वहीं मढौरा के डबरे में फेंक दिया और धड़ को 80 किलोमीटर दूर सोनपुर गंडक नदी में। पुलिस आज तक उस मर्डर मिस्ट्री को नहीं सुलझा पाई, लाश मिली नहीं। झुलना की गुमशुदगी आज भी थाने में दर्ज है। केवल हम चार दोस्त ही जानते थे कि उसकी हत्या हमने कैसे की? यह मेरी पहली हत्या थी। हिंसा के इस बीज को जैसे निजी सेना से जुड़ने पर खाद-पानी मिला।
मामा की हत्या के बाद रणवीर सेना से जुड़ा। एक उन्माद। उतेजना। खून के बदले खून। हिंसा-प्रतिहिंसा का खेल। सिर के बदले सिर। लाश के बदले लाश। तुम दस मारोगे तो हम तीस मारेंगे। हमने मारा भी। कलम छोड़कर हथियार थामा। रातों को पार्टी की बैठकें होतीं। हथियार के लिए चंदे इकट्ठे किए जाते। गांव के साधारण भूमिहार से लेकर बड़े नेता-मंत्री तक बिना मांगे हजारों-लाखों की सहयोग राशि देते। हमारे अत्याधुनिक हथियारों का मुकाबला नक्सली संगठन नहीं कर पाते। हमारी ताकत बढ़ने लगी। आतंक भी कहा जा सकता है इसे। हम अपनी जाति के नायक और योद्धा थे। कहीं न कहीं मैं इस चीज को इंज्वाय करने लगा। हिंसा के खेल में मैं मजा लेने लगा। हमारे लिए हर दलित नक्सली था। नक्सली संगठनों के लिए हर भूमिहार रणवीर सेना का सदस्य। हम अपने सरदार यानी मुखिया उर्फ़ बामेश्वर से मिलते और अगले जनसंहार की योजना बनाते। और इस सब में मेरी अब तक की पढ़ाई कहीं भी बाधक नहीं बनती। गया जहां गौतम बुद्ध ने ज्ञान प्राप्त किया और पूरी दुनिया को अहिंसा का पाठ पढ़ाया, हम उसी इलाके में हिंसा को परवान चढ़ा रहे थे। वे पांच साल कैसे गुजरे कुछ पता ही नहीं चला।
लेकिन वक्त और इतिहास सीधी लकीर में नहीं चलता। उसकी चाल घुमावदार होती है। मुखिया अब हिंसा की राह छोड़ राजनीति की राह पकड़ना चाहते थे। लेकिन संगठन के अधिकतर सदस्य इसके पक्ष में नहीं थे। सेना में दो फांक हो गया। मुखिया को अप्रासंगिक करने की चालें चली गईं। फिर एक दिन बिल्कुल फिल्मी अंदाज में मुखिया को पुलिस ने पटना के एक घर से गिरफ्तार कर लिया गया। कुछेक ने इसे मुखिया का आत्मसमर्पण माना। वे जेल गए। जेल से चुनाव भी लड़े। हारे। सूबे में निजाम बदला। निजाम के बदलते ही बहुत सी चीजें बदलने लगी। जातीय संघर्ष मद्धम पड़ गया। नक्सली भी सुस्त पड़ गए। रणवीर सेना की प्रासंगिकता खत्म होने लगी। मुखिया जेल से रिहा कर दिए गए। और एक रोज सुबह सैर के वक्त उनकी हत्या हो गई। तमाम मीडिया ने मुखिया के तराने गाए, तो कुछ ने तीर छोड़े। किसी ने कातिलों का सरदार कहा तो कुछेक उन्हें गांधी कहने की मूर्खता करने से भी नहीं बचे। लेकिन किसी ने भी उन लोगों के बारे में एक पंक्ति नहीं लिखी, जो लोग रणवीर सेना के सिपाही और कमांडर बन जनसंहारों में मुखिया के साथी थे। उनका क्या हुआ? कहां गए? किन हालात और मनःस्थितियों में वे जी रहे हैं? कुछ नेता बने, कुछ ठेकेदार और बाकी मेरी तरह नर्क की यातना भुगत रहे हैं? प्रतिशोध से शुरू हुई राह आज पछतावे तक पहुंच गई है। क्या जिंदगी इसी तरह करवट बदलती है।
बीस हत्याएं। बीस चेहरे। बीस से जुड़ी सौ जिंदगियां अक्सर मेरा पीछा करती हैं, डग-डग पर- सवाल, तुम हमें जानते नहीं थे... हम कभी आपस में मिले भी नहीं थे... हमने तुम्हारा कुछ नहीं बिगाड़ा था, न दोस्ती, न दुश्मनी, न कोई वास्ता। फिर क्यों तुमने मारा हमें? कानून की पकड़ में नहीं आना बेगुनाह होना नहीं होता। तुम्हें अब तक फांसी हो जानी चाहिए थी और तुम मजे में यहां बैठकर शराब पी रहे हो। तुम्हें मरना होगा... तुम्हें देख हम छटपटाते हैं... तुम्हें मरना होगा कबीर...
मरे में अंधेरा था। अंधेरे में मैं। मेरा जीवन। टेबल पर रखी शराब भरी गिलास मुझे नजर नहीं आ रही थी। मैं टटोल कर पी रहा था। कतरा-कतरा। घूंट-दर-घूंट।  निराशा के गहरे क्षणों में इस देश की सबसे सस्ती शराब ही मेरा साथ दिया करती है।
हरहाल मैंने अब मरने का तय कर लिया है। जरूरी नहीं कि मर ही जाऊं। क्या पता हिन्दी फिल्मों की तरह जिंदगी से मौत की ओर लगाई जाने वाली आखिरी छलांग से ठीक पहले कोई अपनाआकर मुझे बचा ले। और सच तो यह है कि मैं बचना भी चाहता हूं।
कुछ घंटे पहले देखे बादल सरकार के नाटक बाकी इतिहासका दृश्य आंखों के सामने ठहर गया। नाटक का नायक आत्महत्या के बाद वापस अपने लोगों के बीच आता है। लोग पूछते हैं, ‘क्यों की तुमने आत्महत्या नायक के जवाब का लब्बो-लुआब यह है कि जो बदतर हालात हैं, जीने के लिए तमाम तरह के समझौते हैं... भ्रष्टाचार, बेईमानी, अनैतिकता, अमानवीयता... इन सबके खिलाफ़ था मैं... आत्महत्या कर मैंने अपना प्रतिशोध व्यक्त किया है... प्रतिशोध का केवल यही तरीका बचा रह गया था मेरे पास। हमका प्रतिरोध जनसंहार था। मैंका प्रतिरोध आत्महत्या। हमसे मैंके मोड़ पर पहुंच गया मैं, हत्या से आत्महत्या की ओर।
नाटक देखने के बाद बाहर निकलते ही सतीश मिल गया, ‘क्या हाल है दादा।
नाटक देखने आया था
अब दिन में भी शुरू हो गए?’ सतीश ने उसके मुंह से शराब की दुर्गंध महसूस कर ली थी। 
रात का इंतजार कौन करे, कि दिन में क्या-क्या नहीं होता?’
आप जिंदगी में हल्केपन के शिकार हो गए हैं।
वान गाग को जानते होमैं अपनी धुन में था।
जानता हूं... तो...सतीश समझ नहीं पाया।
वान गाग दुनिया का महान चित्राकार... खाने के लिए पैसे नहीं, भूखे रहा। उसे आत्महत्या करनी पड़ी। ओल्ड मैन एंड द सीजैसे उपन्यास के जरिए दुनिया को जिजीविषा का पाठ पढ़ाने वाला होमिंग्वे साल भर तक गर्दन पर राइफ़ल रखकर आत्महत्या का रिहर्सल करता रहा और एक दिन फाइनल शो... गुरुदत्त, गोरख पाण्डेय। समझ नहीं पा रहा हूं रचनाशीलता-संवेदनशीलता का आत्महत्या से कोई रिश्ता है या अपने समय से विद्रोह का एक कारुणिक रूप है यह।’’
दादा घर जाइये। लगता है ज्यादा पी ली है आपने।
...कई दफे ऐसा होता... गिलास में शराब की जगह खून दिखाई देने लगता... उन लोगों के खून जिन्हें जनसंहारों में मारा था मैंने... मेरे लिए तय करना कापफी कठिन था कि मैं शराब पी रहा हूं या खून।
मैं तन्हा वापस घर लौटा आया।। फिर से शराब पीने लगा। विदेशी लेखक फ़रनांदो पैसोआ की पंक्ति याद आई, किसी भी व्यक्ति के लिए ईमानदारी से यह स्वीकार करने के लिए बौद्धिक साहस की जरूरत है कि वह एक मानवीय क्षुद्र तत्व से अधिक नहीं है, वह एक ऐसा गर्भपात है जो होने से बच गया।
क्या मैं भी होने से बचा कोई गर्भपात हूं?
र बार की तरह, भीतर से आवाज आई, हत्यारा हूं... भले ही कानून ने नहीं पकड़ा, सजा नहीं दी... मुझको खुद ही खुद को सजा देनी चाहिए।
जलती सिगरेट। उठता धुंआ। कसैला होता माहौल। वान गाग, हेमिंग्वे, गुरुदत्त, गोरख पाण्डेय, आत्महत्या से ठीक पहले इतने ही तन्हा, बेचैन, दुविधाग्रस्त भावावेग में रहे होंगे?
सने अपनी  मीनाक्षी को फोन लगाया। वह बिहार के जनसंहारों और निजी सेनाओं पर रिसर्च कर रही है। इसी सिलसिले में उससे परिचय हुआ।
मैं कबीर बोल रहा हूं।
प्रणाम सर, सब ठीक तो है।
कुछ भी ठीक नहीं है।
क्या हुआ?’
तुम्हारे सहारे की जरूरत है।
मैं क्या मदद कर सकती हूं।
तुम अभी इसी वक्त मेरे पास चली आओ... तुम्हारी गोद में सिर रखकर रोना चाहता हूं।
क्या बोल रहे हैं सर... ऐसा पासिबल नहीं है।
तुमको ऐसा करना होगा मीनाक्षी वरना मैं मर जाऊंगा।
लगता है आप बहुत ज्यादा नशे में हैं...कल बात करते हैं...मीनाक्षी ने फोन काट दिया।
ह लगातार मीनाक्षी को फोन करता रहा। पचास से ज्यादा कॉल। मोबाइल पहले रिंग होता रहा। फिर आवाज आने लगी, जिस व्यक्ति से आप संपर्क करना चाहते हैं वह आपकी पहुंच से बाहर है।
मेरी बेचैनी पागलपन के दायरे में दाखिल होने लगी है। रात बारह का समय। करूं भी तो क्या? कहां जाऊं? घर में कोई भी नहीं। मां रहती थी। वह भी तीन दिनों के लिए बनारस गई है, अपने भाई के पास।
गता है आत्महत्या तो तय है। क्यों न सतीश को फोन किया जाए... वह जरूर साथ देगा। और शायद मरना टल जाए। कॉल किया। काफी देर से फोन उठा, ‘क्या हो गया दादा।

मैं बहुत अकेला महसूस कर रहा हूं... मीनाक्षी को फोन किया था। उसने फोन काट दिया... प्लीज उसे समझाओ कि वह मेरे पास चली आए...
अभी आप सो जाइए, कल बात किया जाएगा...
नहीं, अभी उसे तुम समझाओ
कल समझाऊंगा, आप सो जाइए।
तो तुम ही चले आओ...
आकर क्या करूंगा... क्या तबियत खराब है, हास्पिटल पहुंचाना है...
नहीं अकेलेपन से डर लग रहा है...
कोई बात नहीं... आप सो जाइए कल मिलते हैं। कल मेरा बैंक का एग्जाम है...ज्यादा अकेलापन लग रहा है तो फेसबुक लाग-इन क्यों नहीं करते हैं? इतना कहकर उसने फोन काट दिया।
मैं सतीश को लगातार कॉल करता रहा। सतीश ने मोबाइल को साइलेंट मोड में डाल दिया। उधर से आवाज आती, ‘जिस व्यक्ति से आप संपर्क करना चाह रहे हैं वह कोई रेस्पांस नहीं दे रहा है।
वसाद की खूंटी पर टंगा मन। भावावेग की लहरें। लहरों की सवारी करते विचार। मौत के विचार। अकेलेपन की पीड़ा। मन में चुभी प्रायश्चित की कील। वह मरना चाहता है, और जीना भी। अजीब सा द्वंद्व जीवन और मृत्यु की एक ही समय में चाहत। डॉ. विमल को फोन लगाया, वह मेरा इलाज करते हैं, मनोवैज्ञानिक है। देश के नामी साइकेट्रिक। कई बार कोशिश की। जवाब एक ही मिला, ‘आप जिससे संपर्क करना चाह रहे हैं वह अभी व्यस्त है।
खों में आंसू छलक आए, अकेला हो गया हूं, बातें करना चाहता हूं... किसी के कंधे पर सिर रखकर रोने का मन है... अरबों-खरबों की भीड़ में तन्हा... पास बैठने वाला कोई नहीं... सुनने वाला कोई नहीं... हुजूम को साथ लेकर चलने वाला कबीर अकेला पड़ गया है... कैसे हो गया यह सब?


मुसीबत और अकेलेपन से घायल के दिल को मां की आवाज राहत देती है। उसकी आवाज मुझे जरूर बचा लेगी।
माने से मायूस होकर मैंने सबसे अंत में मां को फोन लगाया। फोन नहीं उठा। वह स्विच ऑफ था। बार-बार कोशिश करने पर एक ही जवाब मिलता रहा, जिस व्यक्ति से आप संपर्क करना चाह रहे हैं वह कवरेज एरिया से बाहर है, कृपया बाद में प्रयास करें। और वह बाद मेंकभी नहीं आया। मां भी दूर चली गई। मेरे पहुंच क्षेत्र से बाहर। बार-बार कॉल। हर बार वही तयशुदा जवाब।
राब न बोतल में बची है, न गिलास में। सिगरेट का डिब्बा भी खाली। बची है तो राख, बुझी हुई सिगरेट। खाली गिलास। माचिस की तीलियां। दुकानें बंद हो गई होंगी। सुबह ही खुलेंगी और अब सुबह का इंतजार किसको है?
मीनाक्षी ने उसका फेसबुक एकाउंट खुलवा दिया था। चार हजार से ज्यादा उसके फेसबुक मित्र भी बन गए थे।
बीर को सहसा फेसबुक मित्रों की याद आई। उसने तुरंत कम्प्यूटर ऑन किया। फेसबुक लाग-इन कर पोस्ट किया, दोस्तो, मैं इस क्षण खुद को बेहद अकेला महसूस कर रहा हूं... मुझे आपका साथ चाहिए आपमें से कोई भी मेरे घर तुरंत आ जाए या फोन करे। मैं मर भी सकता हूं, मैं इंतजार कर रहा हूं, मेरा पता है...।
से पोस्ट किया। दस मिनट के अंदर पचासों ने इसे लाइक किया। दस कमेंट भी आ गए... बधाई... नीत्शे ने भी कहा था, आदमी अंततः अकेला है, आप इस दुनिया को एक बहुत बड़े सच को अनुभव कर रहे हैं बधाई हो...। आप ही क्या, दुनिया का कोई भी आदमी कभी भी मर सकता है और वह अंतिम पल तक किसी न किसी का इंतजार ही कर रहा होता है... इसी पल के लिए रवीन्द्रनाथ टैगोर ने कहा है-एकला चलो रे...।
ह हैरान था। कमेंट्स और लाइक की संख्या बढ़ती जा रही थी... मगर कोई घर नहीं पहुंचा। उसने फिर अगला पोस्ट किया, ‘मैं हैरान हूं मेरे साढे चार हजार मित्रों में मेरे पास किसी का भी फोन नहीं आया, कोई भी घर नहीं आया और अब मैं आत्महत्या करने जा रहा हूं। मैंने जहर की गोलियां खा ली हैं... जहर असर करने लगा है... मेरी आंखें बंद हो रही हैं। हो सकता है किसी भी क्षण अंतिम सांस... आंखें झपकने लगी... प्लीज आ जाओ...अब जबकि मौत मेरे मुहाने पर खड़ी, मुझे अपनी बांहों में भरने ही वाली है... मौत से डर लगने लगा है, मैं जीना चाहता हूं... नए सिरे से अपनी जिंदगी की शुरुआत करना चाह रहा हूं... अब तक की रफ़ जिंदगी को फेयर करना चाहता हूं काश! मुझे इसके लिए एक मौका मिल जाए... मैंने बहुत बड़ी गलती की। प्लीज... कोई मुझे बचा ले।किसी तरह से इसे पोस्ट किया।
स पोस्ट को भी लोगों ने लाइक करना शुरू किया। संख्या सैकड़ों में पहुंच गई। कमेंट भी आने लगे... तरह-तरह के कमेंट। मसलन... आप बहादुर हैं जो जीवन को ठोकर मार रहे हैं... मृत्यु जीवन का ही एक रूप है... क्या यह कदम आपका प्रतिरोध है?... काश! आप मृत्यु के बाद के अनुभवों को भी शेयर कर पाते... आप गलत कर रहे हैं, इसे पलायन कहा जाएगा...। कमेंट की संख्या तेजी से बढ़ रही थी और लाइक करने वालों की भी। आपको और इंतजार करना चाहिए था...।
गली सुबह कमरे में लाश पड़ी थी कबीर की। बेकफ़न। करीब ही खड़े चार लोग-मीनाक्षी, सतीश, कुमार विमल और मां। चारों ही कबीर की मौत का जिम्मेदार खुद को मान रहे थे। अगर रात को उन्होंने बात कर ली होती तो अभी सामने कबीर होता-उसकी लाश नहीं।
लाश के हाथ में एक चिट थी। उसमें लिखा था, ‘मैं निपट अकेला करता भी तो क्या? जिंदगी बेमानी हो जाने पर जिया ही क्यों जाए? जानता हूं लोग इसे मेरी हार और पलायन ही मानेंगे... पलायन बेहतरी के लिए किया जाता है गांव से कस्बे, कस्बे से शहर, महानगर... कई दफे पलायन मजबूरी में होता है... हम हम सब खुद ही अपनी हालातों-परिणतियों के लिए जिम्मेदार हैं। खैर... तुम्हारी है, तुम्ही संभालो ये दुनिया।
हसा उस मातमी सन्नाटे को चीरता एक व्यक्ति वहां दौड़ता-हांफ़ता पहुंचा। उसने पूछा-आपमें से कबीर कौन है... आज सुबह मैंने फेसबुक में पढ़ा...।
तीश ने बिना कुछ बोले कबीर की लाश की ओर इशारा कर दिया।


संपर्क: बी-107, सेक्टर-63, नोएडा, गौतमबुद्धनगर, उ.प्र.

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