"मेरे नारी चरित्र सुन्दर होते नहीं, सुन्दर प्रतीत होते हैं" - मनीषा कुलश्रेष्ठ

, by शब्दांकन संपादक

आज के सफलतम कथाकार विवेक मिश्र ने, जब मनीषा कुलश्रेष्ठ से उनके अब तक के साहित्यिक सफ़र पर बात करी, तो वो इंटरव्यू भी किसी कहानी से कम रोचक नहीं होना था . ये वाजिब भी है क्योंकि दोनो एक ही दौर के सफल युवा कथाकार भी हैं.


विवेक:-आपकी कहानियों को पढ़कर, आपसे मिलकर, बातचीत करके लगता है कि आपके जीवन में कला का बहुत महत्व है। आपके जीवन में, आपके व्यक्तित्व में एक एस्थेटिक इन्क्लेनेशन है। क्या लेखन उसी रुझान की उपज है, या इसकी और कोई वजह है?


छोटे कस्बे से निकल कर फिर एयरफोर्स के माहौल में आए तो थोड़ा एस्थेटिक एक संक्रमण की तरह आ गया हो तो आ गया हो
मनीषा:-कला अपने शत प्रतिशत विशुद्ध रूप में तो मेरे जीवन में शुरु से नहीं थी. मैं लोक – कलाओं के ज़्यादा निकट रही. मेवाड़ के इलाके में मेरा बचपन बीता, जहाँ मीराँ के भजन लोक में अलग तरह से प्रचलित हैं. कई तरह के लोकनाट्य ‘गवरी’ और ‘वीर तेजाजी’ देखते हुए होश सँभाला है. अपने मन के भीतर उतरती हूँ तो मुझे मिलती है, एक कुतुहल प्रिय लड़की जो कठपुतलियों के खेल, बहुरूपिये, भवाई नृत्य आदि जैसी लोककलाओं के बीच बड़ी हो रही है, एक इतिहास के साए में पल रही है....किले, बावड़ियाँ जहाँ स्थापत्य और मूर्तिकला का उत्कृष्ट स्वरूप खेल – खेल में शामिल है. आईस – पाईस खेल रहे हैं हवेलियों में....बावड़ियों में उतर रहे हैं. मीराँ महोत्सव हो रहा है, देवीलाल सामर आ रहे हैं, कठपुतलियाँ बनाने का बाल शिविर लग रहा है लोककला मण्डल में, जहाँ न केवल हैण्ड पपेट बनानी है, अपनी स्क्रिप्ट लिखनी है, प्रदर्शित भी करनी है.... उसके बाद कॉलेज में आकर कथक सीखा...किश्तों में, थोड़ा बहुत जयपुर घराना. लेकिन विधिवत 35 वर्ष की उम्र में कथक सीखा, जब बच्चे स्कूल जाने लगे. विशारद किया गुरु भगवान दास माणिक और मोहिनी जी की शिष्या होकर, कथक की रायगढ़ शैली में. नियमित मंच प्रदर्शन और नियमित रियाज़ जैसी स्थिति आ नहीं सकी क्योंकि ग्वालियर से तबाद्ला हो गया, मगर कथक से जुड़ाव हमेशा रहेगा.
एस्थेटिक ! मुझे तो अपना सब कुछ ‘गँवई’ और ‘प्राकृतिक’ लगता है. हो सकता है इस गँवई और प्राकृतिक का अपना सौन्दर्यबोध होता हो.
लेखन, मेरे लम्बे एकांत से उपजे कल्पना जगत का परिणाम है. जिला शिक्षा अधिकारी माँ और बी.डी.ओ. पिता हमेशा अपनी – अपनी जीपों में टूर पर रहते थे. मैं और मेरा भाई घर पर. किताबों के लिए पूरी लाईब्रेरी उपलब्ध थी, कोई सेंसर नहीं था, सो जो मिलता पढ़ डालते. आठवीं – नवीं में ही शंकर का ‘चौरंगी’ , बिमल मित्र का ‘साहिब बीवी और गुलाम’ , खाँडेकर का ‘ययाति’. हिन्द पॉकेट बुक से छपी अनूदित नॉबकॉव की ‘लॉलिटा’, स्वाइग की ‘एक अनाम औरत का ख़त’, हॉथार्न की ‘ द स्कारलेट लैटर’ पढ़ डाली थीं. और ऎसा नहीं था कि समझ नहीं आती थीं, खूब समझ आती थीं.
अब इस माहौल में तो कोई भी पलता, आखिरकार कुछ तो लिखता ही, और जो लिखता उसमें इसकी छवि होती न ! बाकि छोटे कस्बे से निकल कर फिर एयरफोर्स के माहौल में आए तो थोड़ा एस्थेटिक एक संक्रमण की तरह आ गया हो तो आ गया हो. बाकि हम लोग अपने भीतर कतई स्यूडो अंग्रेज़ीदाँ नहीं हो सकते. न मैं न मेरे पति अंशु. हम अब भी साधारण से जीव हैं.


विवेक मिश्र (बाएं) ललित शर्मा, अजय नावरिया, अंशु कुलश्रेष्ठ व मनीषा कुलश्रेष्ठ (दायें) के साथ

विवेक:-आप ठीक-ठीक अपने लेखन की शुरूआत कहाँ से मानती हैं और उस शुरुआत से लेकर आज तक इस सफ़र के महत्वपूर्ण पड़ाव कौन-कौन से हैं?

मनीषा:-मेरे लेखन की शुरुआत ‘हंस’ के उस पत्र से हुई है, जिसे मैंने करगिल के बीच ही जुलाई 1999 में राजेन्द्र यादव को लिखा था ‘किसकी रक्षा के लिए’, जिसे उन्होंने ‘बीच बहस में’ छापा था. यादव जी को याद होगा, हंस मॆं भी उस की प्रतिक्रिया में कितने पत्र आए थे, मेरे पास तो रोज़ बीस – पचीस पत्र आते ही थे, ‘नाल’ जैसी जगह में, जो बीकानेर से भी 15 किमी दूर एक उजाड़ जगह है. तब लगा, मेरे शब्द संप्रेषित होते हैं. उसके बाद महत्वपूर्ण पड़ाव, हंस में पहली कहानी का छपना, ‘कठपुतलियाँ’ कहानी का व्यापक तौर पर स्वीकारा जाना, एक युवा कहानीकार के तौर पर पहचान, फिर ‘शिगाफ’ उपन्यास निसंदेह. मैं लिखे जाने और उस लिखे हुए को स्वीकारे जाने को ही पड़ाव मानती हूँ.
मेरे लेखन की शुरुआत ‘हंस’ के उस पत्र से हुई है, जिसे मैंने करगिल के बीच ही जुलाई 1999 में राजेन्द्र यादव को लिखा था

विवेक:-इस साहित्यिक सफ़र का चर्मोत्कर्ष कब आया?, या अभी लगता है कि उसे आना बाकी है?

मनीषा:-अभी शुरुआत ही है. मैंने अब तक अपनी हर रचना डर – डर कर लिखी है. शिगाफ़ लिखते हुए और अंत तक आते – आते मेरी धैर्यहीनता की वजह से मुझे कतई विश्वास नहीं था कि एक गैर कश्मीरी की तरफ से लिखे इस उपन्यास को ज़रा भी तवज्जोह मिलेगी. वह छपा और मैं साँस रोक कर बैठ गई. किताबों की भीड़ में उसका विमोचन हुआ. न प्रकाशक ने कष्ट किया, न मैंने किसी से कहा भी नहीं कि इसे पढ़ो....यकीन मानिए किसी को नहीं.
शिगाफ़ लिखते हुए और अंत तक आते – आते मेरी धैर्यहीनता की वजह से मुझे कतई विश्वास नहीं था कि एक गैर कश्मीरी की तरफ से लिखे इस उपन्यास को ज़रा भी तवज्जोह मिलेगी. 
एक साल शांति रही, फिर यहाँ – वहाँ से आवजें उठीं...शिगाफ पढ़ा. शिगाफ पढ़ा? यार शिगाफ पढ़ा ! शिगाफ पढ़ना है! मुम्बई से कोई फिल्मकार फोन करके कहता ज्ञान रंजन जी ने कहा था इसे पढ़ने को, कोई कहता राजेन्द्र जी ने कहा ‘शिगाफ’ पढो, मगर सीधे मुझे किसी वरिष्ठ ने कुछ नहीं कहा, और मैं एकलव्य की तरह अपने एकांत में खुश होती रही. ( अपनी किताब पर फोन कैम्पेन चलाना, अपने वरिष्ठों पर मौखिक दबाव बनाने से ज़्यादा शर्मनाक मुझे कुछ नहीं लगता) मेरी किताबों की समीक्षाएँ आईं हैं, इसी ईमानदारी के साथ. पहला उपन्यास लिखकर मैं अपने पहले इम्तहान में पास थी बस ! इसलिए यह चरमोत्कर्ष कैसे हो सकता है, यह बस शुरुआत थी. हालांकि लोग डराते रहे, कि ‘शिगाफ’ से बेहतर लिखो तब ही लिखना, मगर मुझे यह बात नहीं जमी, मैं खराब भी लिखती रही तो भी लिखूँगी चाहे अपनी उँगलियों की खुशी के लिए ही सही. मैंने नॉवेला लिखा ‘शालभंजिका’ लोगों ने शिगाफ से तुलना की मगर उसे भी पसन्द किया उसके अपने फ्लेवर की वजह से. साहित्यिक सफर का चरमोत्कर्ष न ही आए तो अच्छा क्योंकि फिर ढलान शुरु होता है, हालांकि एक जीव विज्ञान से ग्रेजुएट होने के कारण जानती हूँ, मस्तिष्क में भी रचनात्मक न्यूरॉंस की एक उम्र होती है, फिर भी हम सब की नियति देवानन्द, मनोजकुमार की बाद की फिल्मों की सी हो जाती है......
मेरी नज़र चरम पर है नहीं है, मुझे लिखने में जब तक मज़ा आएगा लिखूँगी. नहीं तो हो सकता है, मैं फोटोग्राफी करने लग जाऊँ, कोरियोग्राफी करने लगूँ, वन्य जीवों पर काम करने लगूँ. हिन्दी में ही कहानी किस्से छोड़ विज्ञान – लेखन करने लगूँ.

विवेक:-अपनी रचनाओं में से यदि कहूँ किन को लिख कर कर आपको गहरी आत्म संतुष्टि हुई, या इससे उलट पूँछू कि अपनी ही किस रचना से आप संतुष्ट नहीं हैं और उसे समय आने पर दोबारा लिखना चाहेंगी?

मुझमें ‘मोहन राकेश’ जैसा धैर्य नहीं है कि अपनी किसी छपी – छपाई कृति को तीन बार लिखूँ
मनीषा:-ईमानदारी से कहूँ तो....अभी तक किसी रचना से गहरी आत्मसंतुष्टि नहीं हुई. सब को जब पढ़ती हूँ, तो लगता है, इसे यूँ लिखा जा सकता था. हाँ, ‘शिगाफ़’ में भी लगता है. ‘शालभंजिका’ मैं दुबारा लिखना चाहती हूँ, ख़ास तौर पर ‘पद्मा’ के चरित्र को गहरा करना चाहती हूँ. लेकिन मैं करूँगी नहीं, क्योंकि प्रेम के उस स्वरूप से मेरा बुरी तरह मोहभंग हो गया है. मैं जानती हूँ, मुझमें ‘मोहन राकेश’ जैसा धैर्य नहीं है कि अपनी किसी छपी – छपाई कृति को तीन बार लिखूँ...! मुझे तो लगा कि तीसरी बार लिख कर उन्होंने ‘लहरों के राजहंस’ को ओवरडन कर दिया था.

विवेक:-आपकी कहानियों के नारी चरित्र अन्य स्त्री लेखकों के नारी चरित्रों से अलग खड़े दिखाई देते हैं, सुख में-दुख में, शोषण में, बुरे से बुरे समय में भी वे कहीं न कहीं सुंदर हैं। वे अपनी नज़ाकत और नफ़ासत के साथ हैं, ऐसा क्यूँ?

मनीषा:-क्योंकि हर एक व्यक्ति दूसरे व्यक्ति से अलग होता है. मैं अन्य स्त्री लेखकों से अलग हूँ, मैं विमर्श नहीं जीवन लिखती हूँ. मैं विशुद्ध कला नहीं ‘मन’ और ‘मनोविज्ञान’ लिखती हूँ. मैं सपनों के बीच सोते संघर्ष और संघर्षों में ऊँघते सपने लिखती हूँ. मेरे नारी चरित्र सुन्दर होते नहीं, सुन्दर प्रतीत होते हैं. क्योंकि ‘स्किन डीप ब्यूटी’ वे अपने में लिए चलते हैं. मुझे इस सृष्टि में कुछ भी बदसूरत नहीं लगता. बूढ़ी कालिन्दी, न्यूड मॉडलिंग करती हुई ‘कला’ को अभिव्यक्त करने का साधन है, उसकी झुर्रियों में सुन्दरता है, अनुभव की. मैं आज तक किसी बदसूरत स्त्री से नहीं मिली हूँ ! मुझे तो स्वयं पारिभाषिक तौर पर तयशुदा सुन्दर स्त्रियाँ बल्कि ‘रिपल्स’ करती हैं.

विवेक:-आपकी रचनाओं में जीवन उदात्त रूप में उपस्थित है, पर समय और समाज की राजनैतिक स्थितियों और उसमें रचनाकार की अपनी विचारधारा बहुत स्पष्ट नहीं है, वह प्रछन्न है। कहीं-कहीं यथास्थितिवाद का समर्थन भी करती लगती है, आप इस पर क्या कहेंगी?

यह भीषण अविश्वास का दौर है....किस पर विश्वास प्रकट करूँ?
मनीषा:-हाँ, जीवन ही सर्वोपरि है, बहुस्तरीयता में, अपने गुंजलों में. सवाल के दूसरे भाग से मेरी असहमति है. समय और समाज़ की राजनैतिक स्थितियाँ मेरी रचनाओं में समय से पूर्व एक पूर्वाभास की तरह आई हैं. जब खाप पंचायतों की तरफ से मीडिया सोया था, बल्कि मैं ‘खाप’ शब्द से अपरिचित थी, तब मैंने लोक पंचायत को लेकर ‘कठपुतलियाँ’ लिखी थी. अभी ‘मलाला’ पर हमला तो बहुत बाद में हुआ, हम लोगों को उसका नाम भी बाद में पता चला...मेरी कहानी ‘रक्स की घाटी -शबे फितना’ हंस के अगस्त अंक में आ गई थी. ‘शिगाफ’ तो है ही...रही बात मेरी राजनैतिक विचारधारा की ! कौनसी राजनैतिक विचारधारा ऎसी है जिसमें मैं अपना सम्पूर्ण विश्वास प्रकट कर सकूँ? यह भीषण अविश्वास का दौर है....किस पर विश्वास प्रकट करूँ?
समाधान की नीम हकीमाना पुड़िया मैं कभी नहीं बाँध सकती
वैसे तो किसी रचनाकार की राजनैतिक विचारधारा का चला कर, प्रकट तौर किसी कहानी या उपन्यास में आना लेखन में फूहडपन ही माना जाएगा. रही बात अपनी कथा के माध्यम से किसी सामाजिक राजनैतिक विषम स्थिति के प्रति अपना विरोध स्थूलता के साथ प्रकट करने की, या किसी कथानक के ज़रिए कोई नारा उछालने की मंशा तो मेरी आगे भी नहीं रहेगी, ऎसा करना होता तो अपने भीतर किसी प्रछन्न विचारधारा को आवेग में लाकर ‘शिगाफ’ में मैंने कश्मीर समस्या का कोई अव्यवहारिक हल पकड़ा दिया होता! वह सरल होता मेरे लिए, बहुत ही सरल, मेरा मन जानता न कि यह झूठ है, अव्यवहारिक है. फिर क्या वह पठनीय भी होता? और विश्वसनीय तो कतई नहीं होता. मेरे भीतर के कहानीकार का यह विश्वास मरते दम तक बना रहेगा कि मेरी कहानी ‘दिशा सूचक’ बोर्ड हो सकती है...कि ‘एक बेहतर, संभावित रास्ता इधर को ...’ मगर समाधान की नीम हकीमाना पुड़िया मैं कभी नहीं बाँध सकती. मेरे नारी पात्र अपनी शर्तों पर जीते हैं, अपनी तरह से विरोध दर्ज करवाते हैं, मगर उनके अपने मोह और कमज़ोरियाँ हैं...हाँ यह सच है कि उनमें से ज़्यादातर ‘घर’ नाम की पैरों के नीचे की ज़मीन को खोने से भय खाते हैं, मातृत्व के हाथों हारते हैं...... मुझे एक कहानीकार के तौर पर दबाव रहे हैं कि मैं अपना राजनैतिक रुझान स्पष्ट करूँ ! अब तो मैंने भी एक उम्र जी ली, संसार घूम लिया, मैं लेफ्ट, राईट, सेंटर सबकी आउटडेटेड, अव्यवहारिक, अवसरवादी नीतियों को देख चुकी, भारतीय राजनीति का बहुरंगा चेहरा किस से छिपा है? हमारे यहाँ भी लोग झण्डा वाम का, फण्डा सत्ता का, दिखावा सेकुलर होने का और कलाई पर कलावा बाँध घूमते हैं. क्या उनके राजनैतिक रुझान कनफ्यूज़िंग नहीं? क्योंकि मेरा ही नहीं इस अविश्वास के दौर में किस युवा का राजनैतिक रुझान क्या हो सकता है? ऎसे में अपॉलिटिकल होना ही सुझाता है, बिना झंडा उठाए या किसी झण्डे तले बैठे भी आप सही के साथ और गलत के विरोध में हो सकते हैं. हम किसी फ्रेम से बाहर, एक नए विचार की तलाश में निकले लोग हैं, जो विचार के नाम पर बँटना नहीं चाहते।
ऎसे में उदासीनता...डेलीबरेट नहीं विवशता है....फिर भी....अपॉलिटिकल न रहने देने का दबाव मुझ पर बना हुआ है. मैं जिस से जुड़ सकूँ ऎसी राजनैतिक विचारधारा को अब समय के हिसाब से अपडॆट होना होगा.

विवेक:-आपकी भाषा प्रवाहमय है, पर वह कहानी दर कहानी बदलती है, जिससे कहानीकार की अपनी छाप कमजोर पड़ती है। इसे आप अपनी शक्ति मानती हैं या कमज़ोरी?

मनीषा:-छाप बहुत सीमित शब्द है. भाषा अनंत है. देखिए सच में मेरे पास भाषा अपने समृद्ध रूप में है, और मुझे परिवेश के अनुसार भाषा के साथ बदलाव भाता है, जैसा कि मैं समझती हूँ, सिग्नेचर स्टायल जिसे कहते हैं, वह लेखक को सीमित करती है. सिग्नेचर स्टायल होना, कहानीकार का अंत है, विविधता का अंत है, ऎसा होने पर पाठक पर आपके फॉर्मूलाबद्ध लेखन की पोल खुल जाती है. मैंने प्रियंवद की कहानियों को बहुत गहरे से पढ़ा – बार – बार पढ़ा, मगर अंतत: एक ऎसा समय आया कि लगने लगा, उनके लिखने में एक फॉर्मूलाबद्धता है, इतना इतिहास, इतना विद्रूप, इतना अटपटापन, इतना विचार, इतना दर्शन, इतना प्रेम, इतनी देह और, इतनी भाषा की जगलरी.... ये इनके इनग्रेडियेंट्स हैं....फिर मैं ऊबने लगी. मैं अपनी भाषा की विविधता को कमज़ोरी नहीं मानती. मेरे पास अगर अच्छी हिन्दी, अच्छी उर्दू है, मेरे पास लिखने के तरह तरह के अन्दाज़ हैं, मैं अपने और अपने दोस्तों की बदौलत कहानियों में परिवेश के अनुसार कश्मीरी, मलयालम, स्पेनिश, मेवाड़ी का हल्का - सा शेड ले आती हूँ तो वह सबको भाता ही है. सौ बात की एक बात - मैं बहुत अस्थिरमना हूँ, मैं शायद एक फॉर्मूलाबद्ध लेखन नहीं कर पाऊँगी, इसी ज़िद के साथ बहुत आगे जाकर, कभी कोई ‘सिग्नेचर स्टायल’ बन जाये, तो बन जाए.

विवेक:-समकालीन कथा साहित्य को आप किस तरह देखती हैं और इसकी कौन-सी प्रवृत्तियाँ आपको इसके भविष्य के लिए आश्वस्त बनाए रखती है?

मनीषा:-समकालीन कथा साहित्य, एक बदलाव लेकर उपस्थित हुआ है. सच पूछिए तो बड़ा अजब – गजब समय है. यह तो एक जुमला ही बन गया है कि तीन - तीन – चार – चार पीढियाँ साथ लिख रही हैं. विषयों की विविधता देखें तो एक ओर महेश कटारे एक ओर ‘कामिनी काय कांतारे’ लिख रहे हैं, भवभूति पर बहुत शोध के बाद लिखा एक जीवंत उपन्यास. तो एक तरफ संजीव ‘रह गई दिशाएँ उस पार’ लिख रहे हैं, विज्ञान फंतासियों की तर्ज पर. हमारे युवा साथी, कॉर्पोरेट सेक्टर के टूल बनते युवाओं से लेकर आदिवादी युवकों पर लिख रहे हैं, सिमट रहे घरेलू ग्रामीण उद्योगों पर, नरेगा पर, शहरी किशोरों के मनोविज्ञान पर, एक ओर स्त्री के गहन मन की कहानी लिखी जा रही है तो दूसरी ओर बिलकुल देह के आदिम राग ! मुझे बहुत सकारात्मक लगता है यह वैविध्य ! और इसकी प्रवृत्तियाँ मुझे आशांवित करती हैं, समकालीन कथा साहित्य ने अपना दायरा विस्तृत किया है. लेखक ने बहुत छूट ली है, कथ्य, भाषा और प्रयोग के स्तर पर और वह छूट और प्रयोग स्वीकृत हुए हैं. कथासाहित्य द्वारा बार – बार अपना ही खाँचा तोड़ने से, तट बदलने से इसके प्रवाह में कोई बाधा नहीं आने वाली, बल्कि तकनीकी इसे जन – जन तक स्वीकृत करवाएगी.

साभार 'लमही' जनवरी-मार्च 2013

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हंस फरवरी 2013 "हिंदी सिनेमा के सौ साल"

, by शब्दांकन संपादक


पूर्णांक-316 वर्षः 27 अंकः 7 फरवरी 2013 

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मेरी तेरी उसकी बात 

  • मेरे फिल्मी रिश्ते: राजेन्द्र यादव

 

अतिथि संपादकीय 

  • सिनेमा की बात: संजय सहाय

 

विशेष 

  • किसी एक फिल्म का नाम दो: ओम थानवी
  • सिनेमा में शेक्सपीयर: ओथेलो से ओंकारा तक: विजय शर्मा

 

कहानियां

  • रेप मार्किट: गुलजार
  • चुड़ैल: अभिराम भडकमकर

 

बातचीत 

  • गर्त में जा रही है कल्पनाशीलता: बासु चटर्जी से बातचीत
  • सेंसरशिप अपमानजनक है: गौतम घोष से बातचीत
  • नया सिनेमा छोटे-छोटे गांव-मोहल्लों से आएगा: अनुराग कश्यप से बातचीत
  • अतीत की नहीं भविष्य की सोचिए: गोविंद निहलानी से बातचीत
  • नजरअंदाज करना भी एक राजनीति है: सुधीर मिश्रा से बातचीत
  • सर्जनात्मक जोखिम लेने वालों का था नई धारा का सिनेमा: श्याम बेनेगल से बातचीत
  • गहरी बातों को सरल भाषा में कहना जरूरी है: ओमपुरी से बातचीत
  • सिनेमा अंततः मनोरंजन का माध्यम है: चंद्रप्रकाश द्विवेदी से बातचीत
  • सिनेमा अभिव्यक्ति का नहीं अन्वेषण का माध्यम है: कमल स्वरूप से बातचीत

 

सदी के सरोकार

  • समाज के हाशिए का सिनेमाई हाशिया: तत्याना षुर्लेई
  • हिंदी समाज और फिल्म संगीत: पंकज राग
  • नेहरू युग का सिनेमा: मेलोड्रामा और राजनीति: प्रकाश के. रे
  • सिनेमा की हिंदी: भाषा के भीतर की भाषाएं: चंदन श्रीवास्तव
  • सिनेमा के शताब्दी वर्ष में दस सवाल: विनोद भारद्वाज
  • क्षेत्राीय भाषाओं का सिनेमा: मनमोहन चड्ढा
  • औघड़ फिल्म उद्योग का शताब्दी उत्सव: जयप्रकाश चैकसे
  • मनोरंजन के बाजार में आदिवासी: अमरेंद्र किशोर
  • अतिक्रमण ही अश्लीलता है: शीबा असलम फ़हमी
  • पोर्न फिल्मों की झिलमिल दुनिया: फ्रैंक हुजूर

 

शख्सीयत

  • भारतीय सिनेमा और व्ही.शांताराम: सुरेश सलिल
  • आम आदमी की पीड़ा का कवि: तेजेंद्र शर्मा
  • सिनेमा के प्रयोगधर्मी साहित्यिक किशोर साहू: इक़बाल रिज़वी

 

परख

  • संस्मरणों में गुरुदत्त: सुरेश सलिल
  • खुद की तलाश का लेखाजोखा: प्रेमचंद सहजवाला

 

फिल्म समीक्षा

  • लाल झंडे और नीले रिबन के बीच: उदय शंकर

 

कसौटी

  • मीडिया: फिल्म इंडस्ट्री की प्रोपेगंडा
  • मशीनरी: मुकेश कुमार

 

सृजन परिक्रमा

  • परसाई के बहाने व्यंग्य चर्चा: दिनेशकुमार

 

कदाचित

  • जफर पनाही और हम: संगम पांडेय

  

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वक्त रहते - जनसत्ता, चौपाल - भरत तिवारी

, by शब्दांकन संपादक

कच्चा लालच, बदगुमानी, ओछी राजनीति और जुड़े को तोड़ना, ये हमारे वे दुश्मन हैं जो पीठ पीछे वार नहीं करते।
आज एक तरफ मनुवादी अपने गलत को सही सिद्ध करने के लिए कुछ भी करने पर उतारू हैं, तो दूसरी तरफ अमनुवादी भी उन्हें गलत सिद्ध करने के लिए वैसा ही कर रहे हैं। दिक्कत यह है कि देश का प्रगतिशील वर्ग दोनों की बातों से सहमत नहीं होता दिखता। उसे दोनों ही पक्षों में घृणा का स्वर सुनाई देता है। शायद इसलिए कि ये वे स्वर हैं, जिनके खिलाफ होकर ही वह प्रगति कर सका है या जात-पात आदि से ऊपर उठ सका है। उसकी दुविधा तब और बढ़ जाती है, जब उसे यह स्वर अपने बहुत करीब सुनाई देता है। ऐसी स्थिति में अगर वह मनुवाद का स्वर हो और वह न सुने तो उसे अमनुवादी ठहरा दिया जाता है और यदि विपरीत स्वर हो और वह अनसुना कर दे तो उसे मनु समर्थक कहा जाता है।

    इस बात पर ध्यान देना बहुत जरूरी है कि इन दोनों तरह के वादों से सरोकार नहीं रखना ही उसका प्रगति-पथ है, जिसे वह नहीं छोड़ना चाह रहा है। बीते कुछ वर्षों में इन स्वरों की मुखरता ने उसे पथ से विचलित भी किया है। सवाल है कि यह राष्ट्र के लिए कितना घातक हुआ? वह नागरिक जो सर्वधर्म समभाव की नीति पर गर्व से चल रहा था, जिसके लिए राष्ट्र ही धर्म था, जिसे सिर्फ तिरंगे से प्यार था, उसी ने लाल, हरा, नीला, पीला या काला झंडा हाथ में ले लिया, जिसका अब तक वह विरोधी रहा है।

    कई दफा दिमाग को कोरा करके सोचने पर ही स्वस्थ निर्णय सामने आ पाता है। इन मुद्दों पर निष्पक्ष होकर गौर करना जरूरी है, सवालों की तह तक पहुंचना जरूरी है। कच्चा लालच, बदगुमानी, ओछी राजनीति और जुड़े को तोड़ना, ये हमारे वे दुश्मन हैं जो पीठ पीछे वार नहीं करते। गंभीर बात है कि ऐसा वार करने वालों की संख्या इतनी तेजी से बढ़ रही है कि हमारे सही और गलत को समझने की प्राकृतिक इंद्रियबोध-शक्ति उनके प्रभाव से कम होती जा रही है। ये सिद्धहस्त लोग अब इस स्तर के हो गए हैं कि वे बड़ी से बड़ी दुर्घटना को भी ठीक सांप्रदायिक लोगों की तरह जात-पात का जामा पहनाने लगे हैं। यहां यह बताने की जरूरत नहीं है कि ‘जुड़े को तोड़ना’ की नीति से फायदा किसे पहुंचता है।

    कितने पत्ते हमने इन्हें दे दिए हैं खुद से खेलने के लिए! क्या आप जानते हैं कि ये वे लोग हैं, जो इंसान तो दूर, उसकी जाति को भी हिंदू, मुसलिम, सिख, ईसाई आदि की नजर से नहीं, बल्कि सिख बनाम मुसलिम, हिंदू बनाम मुसलिम, सिख बनाम हिंदू, गरीब बनाम अमीर, मराठा बनाम बिहार, दलित बनाम सवर्ण आदि की नजर से देखते हैं। अगर हम उनकी इस नजर को नहीं पहचानते तो किसी भी समस्या का समाधान नहीं निकलने वाला। अब जो ये नया कार्ड हम इन्हें दे रहे हैं ‘मनुवाद बनाम अमनुवाद’ यह तुरुप का पत्ता है, जो ‘जुड़े को तोड़ना’ को कितनी ताकत दे रहा है, इसका हमें शायद अंदाजा नहीं है। इसे खेल कर वे जघन्य अपराधों को भी हमारे सामने ऐसे रख रहे हैं कि वे हमें जघन्य न लगें। आम बातचीत को भी यों तोड़-मरोड़ कर सामने रख देते हैं कि हमारा आपसी सामंजस्य बिगड़ जाए।

    जिस कृत्य से सारे समाज को क्षति पहुंचे, वह हमें अपनी क्षति नहीं लगे, तो सोचिए कि कैसी स्थिति होगी। कोई बात बगैर पूरा संदर्भ दिए अगर अनर्थ के रूप में सुनाई जाए तो क्या होता है? आज वक्त है कि हम इन राजनीतिक ‘वादों’ को दफन करें और एक होकर चलें। यह करना आसान नहीं होगा, क्योंकि इनकी जड़ें बहुत गहरी और कांटों से लैस हैं और उन्हें उखाड़ने में हमें पीड़ा होगी। लेकिन जान लें कि अगर हमने यह पत्ता उनके पास रहने दिया तो आने वाले वक्त में होने वाली दुर्घटना अगर आपके साथ होती है तो आप अकेले होंगे और तब तक बहुत देर हो चुकी होगी।

    भरत तिवारी, शेख सराय, नई दिल्ली
साभार जनसत्ता 31 जनवरी, 2013 "चौपाल"

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अशोक गुप्ता: कहानी - चाँद पर बुढिया

, by शब्दांकन संपादक


चाँद की सतह पर जिस इंसान ने सबसे पहले कदम रखा था, वह नील आर्मस्ट्रौंग अभी कुछ दिन पहले अपनी उमर पूरी कर के स्वर्ग लोक पहुंचा. इसके पहले स्वर्ग में न जाने कितने लोग पहुंचे होंगे, लेकिन नील वह एकदम पहला इंसान था जिसने चाँद की धरती को देखा था. यह अनुभव स्वर्ग लोक में किसी देवता को भी नहीं था, क्योंकि चाँद पर न तो सोमरस है न अप्सराएं, तो देवता वहां जाते भी क्यों.. फिर भी उनमें इस बात की बड़ी उत्सुकता जागी कि वह इस नये आये स्वर्गवासी से बात करें और चाँद के बारे में इसके अनुभव जाने.
सारे देवता एक जगह इकठ्ठा हुए और उनके बीच नील को बैठाया गया. सब ने एक एक करके अपने अपने सवाल पूछने शुरू किये, नील सबका जवाब देते रहे. अब उनको भी देवताओं के नादान सवालों का जवाब देने में मज़ा आने लगा था. तभी किसी एक देवता ने पूछा,
“ अरे बताओ नील, क्या तुम्हारी मुलाक़ात चाँद पर उस बुढिया से हुई थी जिसे दूर से सभी लोग चरखा कातते हुए देखते हैं..?”
“ हां क्यों नहीं, मेरी तो उस से खूब बातें भी हुई थी...उससे भेंट तो मेरा अब तक का सबसे अच्छा अनुभव है. उसके आगे तो स्वर्ग का सुख भी फीका है.”
नील की इस बात से देवता थोडा चिढ गये. इंद्र ने अपनी गर्दन घुमा कर यमराज की ओर देखा,
“ क्यों नील, वह बुढिया अभी तक मरी नहीं, कुछ गडबड है क्या यमराज...?”
इसका जवाब यमराज ने तो नहीं, लेकिन सभा में बैठी एक अप्सरा ने दिया. वह इंद्र की खास मन भाई अप्सरा थी,
“ नहीं, गडबड नहीं हैं देवराज, नीचे पृथ्वी पर एक भाव है, प्रेम. नीचे पृथ्वी पर एक अभिशाप भी है, अँधेरा, जो सूर्य देवता के थक कर सो जाने से पैदा होता है. जब अँधेरे से भय पैदा होता है, तब चाँद से वह बुढिया, अपने सफ़ेद काते सूत और ताज़ी रूई से धरती पर उजाला फैलाती है. चरखा चलाते चलाते वह बुढिया गाना भी गाती है जो उजाले के साथ धरती कर पहुँचता है तो धरती पर प्रेम गहरा होता जाता है. प्रेम का अर्थ ही है, उजाला... इसलिए प्रेम को अपने मन में समेटने वाले सभी लोग चाँद की तरफ और उस बुढिया की तरफ भाव विभोर हो कर देखते हैं. बुढिया के गीत के उत्तर में सभी प्रेमी, प्रेम के गीत गाते हैं. इसीलिये, जब पृथ्वी पर कोई प्रेमी अपनी उम्र पूरी कर के देह छोड़ता है, तो उसके प्राणों एक अंश उस बुढिया में जा कर समा जाता है. कितना प्राण पाती है वह बुढिया.. वह मरेगी कैसे..? उसकी ओर से तो निश्चिन्त रहें यमराज...”
अप्सरा के इस जवाब से इंद्र खीझ गये, लेकिन जब ब्रह्मा ने इसका विरोध नहीं किया तो, इन्द्र बेचारे क्या करते. पर इन्द्र तो आखिर देवराज थे, चुप कैसे रह जाते. उन्होंने नील आर्मस्ट्रौंग से एक सवाल और कर दिया,
“ ये चाँद तो दिनोदिन छोटा होता जाता है और गायब भी हो जाता, तब वह बुढिया दब नहीं जाती ?, चलो मरती तो खैर नहीं है.”
“ अरे आप यह भी नहीं जानते इन्द्र भगवान, आप कैसे देवता हैं ? खैर सुनिए;”
यह बुढिया हर महीने में एक दिन रूई जुटाने जाती है. जिस दिन को सब पूर्णमासी कहते हैं, उस दिन बुढिया के पास काम भर को पूरी रूई होती है और चाँद का गोला सबसे बड़ा दिखता है. फिर दिनों-दिन रूई घटती जाती है, चाँद सिकुड़ता जाता है. अमावस्या की रात वह बुढिया पृथ्वी पर सरस्वती के उपासकों से रूई मांगती है, विश्वकर्मा के भक्तों से रूई मांगती है, दुर्गा की प्रतीक नारियों से रूई मानती है, वह कबीरपंथियों से तो खैर मिलती ही है क्योंकि वह तो हैं ही जुलाहे की विचार संतान, और अगली ही रात, अपनी मुट्ठी में कुछ रूई लेकर वह पृथ्वी का अपना दौरा पूरा कर के लौट आती है. फिर एक एक दिन उसके पास रूई का नया भण्डार पहुंचता जाता है, चाँद प्रसन्न हो कर रूई का उजास फैलाने लगता है. पूर्णिमा के दिन बुढिया का भण्डार भर जाता है और उसके पास रूई पहुंचनी बंद हो जाती है. लेकिन बुढिया का सूत काटना बंद नहीं होता, इसलिए रूई घटती भी जाती है. अमावस्या को बुढिया के पास रूई का भंडार खत्म हो जाता है, और वह बुढिया चल पड़ती है रूई जुटाने.. ...तो अब आपकी कुछ जानकारी बढ़ी देव गण...?”
सभी देवताओं ने सिर हिला कर हामी भरी, पर इस बार विष्णु जी ने जुबान खोली. वह बोले,
“ क्या लक्ष्मी के भक्तों के पास नहीं जाती बुढिया..?”
“ हे नारायण, आप का भी हाल पृथ्वीवासी पतियों की तरह है, जो अपनी पत्नियों को नहीं समझते. अरे लक्ष्मी और लक्ष्मीभक्त, दोनों अन्धकार प्रिय होते हैं, उल्लू की तरह. उन पर लक्ष्मी सवार रहती हैं. उनके पास उजली सफेद रूई कहाँ मिलेगी..? विष्णु जी महाराज, आप भी बस...!”
नील की बात सुन कर बहुत से देवता उठ खड़े हुए. वह बहुत अधीर हो उठे,
“ बहुत हुआ देव सुलभ अज्ञान. अब हम चाँद पर जाएंगे. उस बुढिया से भेंट करेंगे. उसके लिये कुछ उपहार भी ले जाएंगे..”
नील हँसे, “ जाइए शौक से, लेकिन उपहार ले जाने के चक्कर में मत रहिएगा. रूई तो कतई नहीं....”
“ क्यों..?” इन्द्र समेत सारे देवता एक साथ बोल पड़े.
“ इसलिए देवगण, क्योंकि उस बुढिया को केवल प्रेम के उपहार ही स्वीकार होते हैं. वह प्रेम की रूई से प्रेम का धागा कातती है, क्योंकि उजाला सिर्फ उसी से फैलता है. बाकी सब उसके लिये बेकार है... और देवलोक में प्रेम कहाँ..!”
इन्द्र की चहेती अप्सरा यकायक हंस पड़ी.
इन्द्र ने आगे कुछ और कहना चाहा, पर नील आर्मस्ट्रौंग ने हाथ उठा कर सभा विसर्जित होने का एलान कर दिया और उठ खड़े हुए.
सभा समाप्त हुई और देवताओं को पहली बार स्वर्ग में होने का पछतावा महसूस होने लगा.

अशोक गुप्ता

जन्म : 29 जनवरी 1947, देहरादून (उत्तरांचल)
भाषा : हिंदी, अंग्रेजी
विधाएँ : कहानी, उपन्यास, कविता, आलोचना, लेख
मुख्य कृतियाँ
उपन्यास : उत्सव अभी शेष है
कहानी संग्रह : इसलिए, तुम घना साया, तिनकों का पुल, हरे रंग का खरगोश, मेरी प्रिय कथाएँ
अन्य : मेग्सेसे पुरस्कार विजेता भारतीय, परमवीर चक्र विजेता
अनुवाद : ‘मेरी आपबीती’ (बेनजीर भुट्टो की आत्मकथा, डॉटर ऑफ द ईस्ट), ‘टर्निंग प्वाइंट्स’ (ए.पी.जे. अब्दुल कलाम)
सम्मान ‘सारिका’ सर्वभाषा कहानी प्रतियोगिता में कहानी पुरस्कृत तथा उपन्यास के लिए हिंदी अकादमी का कृति सम्मान





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बात और बतंगड़ - सम्पादकीय जनसत्ता

, by शब्दांकन संपादक

    समाज विज्ञानी आशीष नंदी की एक टिप्पणी को लेकर जिस तरह का बावेला मचा, वह बेहद दुर्भाग्यपूर्ण है। यह विवाद दर्शाता है कि हमारे समाज में गंभीर बौद्धिक विमर्श की जगह किस तरह सिकुड़ती जा रही है। जयपुर साहित्य उत्सव में ‘विचारों का गणतंत्र’ विषय पर चल रही बहस में भ्रष्टाचार का भी मुद्दा उठा। इस चर्चा में हिस्सा लेते हुए नंदी ने कहा कि भ्रष्टाचार में शामिल बहुतेरे लोग दलित और पिछड़े वर्ग से ताल्लुक रखते हैं, यहां तक कि इसमें आदिवासी भागीदारी भी लगातार बढ़ रही है। उनकी इस टिप्पणी पर दलितों-पिछड़ों के कई नेताओं ने न सिर्फ उन्हें भला-बुरा कहा, उनकी गिरफ्तारी की भी मांग करने लगे। अनुसूचित जाति आयोग के अध्यक्ष भी इस रट में शामिल हो गए। किसी ने नंदी के खिलाफ अनुसूचित जाति-जनजाति अत्याचार निवारण अधिनियम के तहत एफआइआर भी दर्ज करा दी। जिन नेताओं ने नंदी की निंदा में बयान दिए वे संगोष्ठी में मौजूद नहीं थे। न उन्होंने न गिरफ्तारी की मांग करने वाले दूसरे लोगों और संगठनों ने यह जानने की कोशिश की कि वास्तव में नंदी ने कहा क्या था। वे बात का बतंगड़ बनाने में जुट गए। क्या इसके पीछे अपनी जाति या समुदाय के लोगों को एक खास राजनीतिक संदेश देने या उनके बीच अपनी छवि चमकाने का मकसद काम कर रहा था? जो हो, किसी बात को उसके संदर्भ से काट कर देखने का नतीजा हमेशा खतरनाक होता है। 

    आशीष नंदी प्रगतिशील रुझान के अध्येता हैं और उनकी गिनती अंतरराष्ट्रीय ख्याति के विचारकों में होती है। वे हर तरह की संकीर्णता के खिलाफ लिखते रहे हैं, चाहे वह जाति और संप्रदाय की हो या राष्ट्रवाद की। वे समाज के वंचित वर्गों के प्रति कोई नकारात्मक नजरिया रखें, इसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती। जिन लोगों ने नंदी की गिरफ्तारी की मांग उठाई, क्या वे अपने शुभचिंतकों और विरोधियों में फर्क करने की शक्ति खोते जा रहे हैं? संभव है कि एक प्रश्न के जवाब में आई नंदी की टिप्पणी को आंशिक तौर पर देखने से गलतफहमी पैदा हुई हो। इसलिए बाद में उन्होंने स्पष्टीकरण देकर अपनी बात साफ कर दी। उनका कहना है कि कानून के शिकंजे में आने वालों में दलित-पिछड़े लोगों की तादाद अधिक दिखती है, इसलिए कि वे ज्यादा चालाक नहीं होते और बचने की उतनी तरकीबें नहीं जानते। जबकि ऊंची जातियों और अभिजात वर्ग के लोग कहीं अधिक भ्रष्टाचार करते हैं, पर अक्सर वे इसे छिपाने में कामयाब हो जाते हैं। 

    अगर स्पष्टीकरण के साथ जोड़ कर नंदी के बयान को देखें तो उसमें समाज के प्रभुत्वशाली तबके की ही आलोचना है। कोई चाहे तो इस स्पष्टीकरण से भी असहमत हो सकता है। पर एक विचार से असहमति वैचारिक रूप में ही प्रकट होनी चाहिए। कुछ लोगों के साथ समस्या यह है कि वे वक्रोक्ति और व्यंजना को पकड़ नहीं पाते और गलत निष्कर्ष निकाल बैठते हैं। पर ऐसा हुआ भी, तो यह मामला पुलिस कार्रवाई का विषय कैसे बनता है? अदालतें जानती हैं कि कोई कानून किस तरह और किस पर लागू होता है। 

    इसलिए खतरा यह नहीं है कि नंदी के खिलाफ कोई अदालत अनुसूचित जाति-जनजाति अत्याचार निवारण अधिनियम के तहत मुकदमा चलाएगी। बल्कि खतरा यह है कि अगर किसी कथन को आधे-अधूरे रूप में लिया जाएगा तो समाज में नासमझी और असहिष्णुता को ही फलने-फूलने का मौका मिलेगा।

साभार  जनसत्ता 29 जनवरी, 2013 की सम्पादकीय "बात और बतंगड़" से


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बादल की घुड़की और बारिश की नादानियाँ - डॉ. सुनीता

, by शब्दांकन संपादक

1- टूटता पुल


सफर के साथी ने
संघर्ष में साथ छोड़ दिया
बेरहम दर्द के बिस्तर पर लेटे-लेटे
एक नादां मुहब्बत ने दम तोड़ दिया
यह गुमा था खुद पर
जिंदगी के थपेड़े में
हर कदम मिला के चलेंगे
दिल का पुल टूटने लगा
एक चीख के साथ-साथ छूटने लगा
दिया दिखाया है
उस अजनबी ने जो अभी आया नहीं
हमारे बीच के बाँध को ढीला कर दिया
खिलौने के कथायात्रा में
कब भूल गए ...
हम एक हैं
उस एक ने क्यों राह बदला
वक्त के साथ बर्बादी के धुन रचे
रचना के आगोश में बैठकर
कल्पना के महल बनाते रहे
खुद के तन्हा पल में
नोच-नोच के किसी
भुड़की में छिपा दिया
किसी अनचीन्हें दिन में
निकाल कर देखूंगी
क्या पाया...
क्या खोया...
के जद्दोजहद के उलझन में...!

       2- लहू का हिस्सा


       
       कसमसाहट सी कब्जीयत
       दिमाग की नन्ही दीवारों में
       द्वन्द के कई अनचीन्हें
       लकीर खींचें खड़ें हैं
       खुले आसमानों में कलरव करते
       नाना प्रकार के पंक्षी
       अपनी सुमधुर ध्वनियों से
       धरोहरों के मानिंद दिल के गुत्थम-गुत्था
       को हल्का किये हुए हैं

       जरूरत के सारे उपादान
       दुःख, दर्द, पीड़ा और कसक के
       सानिध्य में बोझिल जीवन के
       संघर्ष को एक नये दिशा की ओर
       उन्मुख किया है

       कुदरत के रचे कानून में
       उलझे लेजुर की तरह इच्छाओं
       के गर्जन करते मेघदूती दुनिया में
       एक-एक निवाला लहू का हिस्सा बना
       बरअक्स सिसकते
       सांसों को वायु ने जीवंत किया है

3- बादल की घुड़की और बारिश की नादानियाँ


नेत्रों ने चुने
चलचित्री समाज में कई चरित्र हैं
कसक, आंसू, पीड़ा और पहाड़
जिनके करारों में सागर की लहरें
बादल की घुड़की और बारिश की नादानियाँ
सड़क की आहें, गलियों की बाहें
नीम के कसिले दरख्त और मीठे कोयले के बोल
ढ़ोल पिटते पपीहे की पीहू
चहक मचाते चुन-मून चिड़ियों के धुन से कंगन
पायल, बिछुआ, चूड़ी और भी तमाम चीजें
सब एक साथ सुनाई-दिखाई देते हैं
चट्टानों की ऊँची-ऊँची शिला पर
बैठे मोर, शेर और सूअर के भी रंग मिलते
सब होता जीवन की हरियाली
बन बसंत में गाते अपने में मस्त
अगर कुछ रह गया तो
ज्ञान के सागर से निकले कुछ सीप
जिनके न होने से अँधेरे का राज
दीपक को काला किये हुए
कई तंज देते कहते क्या कर लिया
कुहुंक बचा कर
मासूम बचपन रौंद दिया
रोजगार के चक्की में पीसकर चटनी सरीखे जिंदगी दिया
शिकवे-गिले के भूगोल में फसे हुए
फांसी के फंदे नसीब हुए
उस दिन के इन्तजार में जो कभी
इन नेत्रों ने चुने थे

4- जिन्हें भ्रम है



एक चिड़िया
फुदकती हुई एक चिड़िया
पगडंडियों के रास्ते निकल पड़ी
यात्रा के अनोखे भ्रमण में
उसके थिरकते मन पर पहरा न था
दुनिया की किसी बंदिश से वास्ता क्या
खुला आस्मां बिछौना
शहर के सारे वितान उसके थे
फर्गुदिया खेलते, उछलते, कूदते, और लुढकते
अपने अंतर के ख्यालों से
सूरज, चाँद के आंचल को नाप आई
हंसी-ठिठोली उसकी अपनी बोली
उसके इस क्रीड़ा से
चहकते तारे सब शर्माए
कभी-कभी सोचने लगती
क्या चढ़े यौवन की बहार ने उसे छला
उसकी मासूमियत ने
हैवानियत को नहीं परखा
छिछोरे ! बला की अदा कह खिल्ली उड़ाते
तमाम कंकरीट से भरे पूर्वानुमान के शिकार मानव मन
मदिरा में मदहोश लूट लिया
कोमल पंखुड़ियों के रेशे-रेशे को
पवित्र, शीतल, ज्वरजनित झूठ के कुंठा और अहम में
हौले-हौले उसके कसक ने महसूस किया
मुख लालिमा पीड़ा के खाई में डूबने लगा
शहर की ऊँची-ऊँची अट्टालिकाएं चुनती हुई
चार मीनार संस्कारों से टकराकर चूर-चूर
चरम अवस्था में चमक-धमक के आगे अँधेरे
चुभने लगे उसकी भोली चंचल आँखें
अन्याय के आंसुओं में भीगते हुए
सागर से खारे संवेदना हो गए
सदा के लिए खामोश होते हुए
अंतरात्मा चीखी चिल्लाई
फिर शांत लहरों की तरह
लेकिन, वह कब हारने वाली थी
कुलबुलाते, कराहते हुए
उठी, बोली !
सिंहनी सा दहाड़ते हुए
बहुत हो चुका फर्क-फर्क का खेल
जिस्म और जादू का तिलिस्म
अब टूटेंगी सारी वर्जनाएं
यातना की समस्त आकांक्षाएं
हम खिलौना नहीं हैं...
जो तिरस्कार के तीर बार-बार सहें
भ्रम तोड़ो तरुणाई के ज्वालामुखी हैं
एक थप्प से जलजला मचा देंगे
कभी दरकेंगे नहीं
धरणी हैं !
धरा के अंग-प्रत्यंग में भूचाल मचाएंगे
दरार बाती दीवार की तरह नहीं
दरख्तों के अटूट जड़ों के मानिंद
जड़वत हृदय के हिम पिघलाते हुए
नैनों में पश्चाताप के रक्त से धुँआ भर देंगे
जो देवदार सरीखे अहंकार के अंधकार हैं
उनके पुर्जे-पुर्जे हवाओं में उड़ा देंगे
जिन्हें भ्रम है
धरती आसमान को एक किये रहने का
हम चले हैं छिछले रास्ते से भले
लेकिन लम्बी सड़कों,चौराहों और चौहद्दियों पर
अनमिट नाम उकेरेंगे
फुदकना काम मेरा भले हो
फरहर मन से परचम फहराएंगे
अतीत के खिड़कियों पर लोरी नहीं गायेंगे
मौजूदा माहौल में इतिहास रचते हुए अमर हो जायेंगे


5- अरमानों के दिन


कुहासे के धुंधलके सफर में
उबड़-खाबड़ मोड़ से गुजरे दिन

वक्त के काफिले में यों हीं बहे
बरबस अश्कों के माला लिए

विराम चिन्हों से होड़ लगाती मृत्यु
संध्या के संग कानाफूसी करती रात-रानी

चाँदनी के दूधिया रंगों में खोये तारे
उजले दिन में गायब अल्पविराम

ऐसे में उत्कट प्रतीक्षा पूर्णविराम की
उच्छल लहरों में लहराए

लघु स्वरुप धारण किये अनोखे सपने
उड़ान भरतीं बहरुपिए किरणें

योजक चिन्हों से क्षण में कौंधते
विचारों के वीथिका में संधि के वर्ण

दूसरे ही पहर सीमट जाते
शबनमी दूब की नोकों पर

गिरते-उठाते ढेकी के धूं में रमें
भावों की अदभुत ज्वाला

छंद, लय, तुक और रस का विस्तार करते
अश्रुपूर्ण अरमानों के दिन

       6- कविता क्या है


       
       कविता क्या है
       उथल-पुथल शब्दों की लड़ियाँ
       कौंधते भावों की कड़ियाँ 

       अंत:पुर में छिड़े द्वंद की खिड़कियाँ
       आसमान में चमकते चाँद, सूरज या तारों की सखियाँ
       सुंदर यौवन से सुसज्जित प्रकृति की वेड़ियाँ

       खुद्बुदते बचपन की अटखेलियाँ
       जबान जनमानस की तुकबन्दियाँ
       तरकश में छिपे अंत:कलह की निशानियाँ

       जीवन, जीविका के सघन में घुले रंगरलियाँ
       उजाले की रानी, रात की मल्लिका मौलियाँ
       मुखड़े-दुखड़े और टुकड़े की गलबहियां
       बावले मौसम की बगल निरेखती बावलियाँ
       ड्योढ़ी पर ऊपर हवाओं की सहेलियाँ
       सौजन्य-सौंदर्य, सुमन-पुण्य की पुतलियाँ

       पंख बिखेरे पवन-झकोरें की झुमरियाँ

7- मुखिया


वह देखो एक मुखिया
घूँघट में घुटती एक दुखिया
आज भी अंगूठा लगाती
क्योंकि निरक्षता की शिकार
समाज की अन्धता ने पढ़ने न दिया
अंगूठे के पोरों से एक ठगिया
मर्दाने मर्म की शिकार
सिसकती शर्म की गुड़िया है
हया के आड़ में घुटती
दर्द सहती समय के साथ छलिया सी
सोचती है लेकिन समझ के पहरे
बर्फ से लगे हैं
छलिया ने छल लिया छदम आवरण ओढ़ के
मुखालफत करती कभी लगी ही नहीं
बस कठपुतली सी घुमती रही
अच्छे-बुरे हादसों से अनजान
स्याही स्पर्श में सहमति के सारे
रंग घोल देती है
मंथन के मुद्दे पर माथा नहीं भिड़ाती
बल्कि कोरे पन्नों पर अपने
काविलियत के झूठे कथा कहती है
व्यथा से अनभिज्ञ अनसुने सवालों से
जूझती है...
〰〰〰〰〰〰〰〰〰〰〰〰〰〰〰〰〰〰〰〰〰〰〰〰〰〰〰〰〰〰〰〰〰〰〰

  •  12 जुलाई 1982 को चंदौली जिले के छोटे से कस्‍बे चकियाँ के पास दिरेहूँ में जन्मीं डॉक्‍टर सुनीता ने ‘स्वातंत्र्योत्तर हिन्दी पत्रकारिता : स्वरूप एवं प्रतिमान’ विषय पर बी.एच.यू.से पी-एच.डी.,नेट,बी.एड.की है.
  • अब तक अमर उजाला, मीडिया-विमर्श, मेट्रो उजाला,विंध्य प्रभा, मीडिया खबर, आजमगढ़ लाइव, समभाष्य, हिंदोस्थान, मनमीत, परमीता, काशिका, अनुकृति,  अनुशीलन, शीतलवाणी, लोकजंग, नव्या आदि में रचनाएँ, लेख–कहानी, कवितायें  प्रकाशित हो चुके हैं.
  • तनिष्क प्रकाशन से निकली पुस्तक विकास और मुद्दे में शोधपत्र प्रकाशित हुआ.
  • राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय सेमिनार/संगोष्ठी में शोधपत्र प्रेषित .
  • आकाशवाणी  वाराणसी में  काव्य वाचन.समय-समय पर अकादमिक शिक्षण के दौरान  पुरस्कृत.
  • तमाम पत्र-पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशनाधीन हैं.
  • पेशे से हिंदी में सहायक प्रवक्ता,नई दिल्ली

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फिल्‍मों में वह भाषा है जो लेखक, डाइरेक्‍टर ने दी है - फिल्‍म अभिनेता राजेन्‍द्र गुप्‍ता

, by शब्दांकन संपादक

'लगान' में मुखिया , 'पान सिंह तोमर' में मेजर रंधावा, 'बालिका वधू'  में महावीर सिंह, 'चिड़ियाघर' में केसरी नारायण , 'कहानी चंद्रकांता की' में पंडित जगन्नाथ... नाम अलग-अलग हैं लेकिन कलाकार एक ही है ।
राजेन्‍द्र गुप्‍ता ने पानीपत से दिल्ली, नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा और फ़िर बालीवुड तक के सफर पर मधु अरोड़ा से जो गुफ्तगू की, उसे आप तक ला कर, शब्दांकन अपना योगदान दे रहा है ...

आपके लिये नाटक क्‍या है?

आज मैं जो कुछ भी हूं, नाटक की वज़ह से ही हूं। मैं जब नाटक सीखने एन एस डी गया तो वहां नाटक को सीखा, उसे समझा और जब मंच पर नाटक किये तो मुझे लगा कि मैं नाटक के लिये ही बना हूं और सच कहूं तो वहां एक तरह से ख़ुद को पाया था। एन एस डी में नाटक सीखने के दौरान ही कहानी और निर्देशन की समझ आयी। अपनी शिक्षा के दौरान मैं विज्ञान का छात्र रहा, साहित्‍य का छात्र तो कभी रहा नहीं। सो नाटक-कला को सीखते समय ही साहित्‍य को समझने की समझ आयी। धीरे-धीरे नाटक करने में मज़ा आने लगा और फिर तो नाटक में इस तरह डूबता चला गया कि उससे बाहर आना संभव ही नहीं था। अब जब से मैं सीरियल और फिल्‍में करने लगा हूं तो नाटक और भी ज़रूरी लगने लगा है। नाटक आपको साहित्‍य से जोड़ता है। जब तक कला साहित्‍य से नहीं जुड़ेगी, वह आपको इन्‍वाल्‍व नहीं कर सकती। नाटक का महत्‍वपूर्ण तत्‍व लेखन है लेकिन आज के आपाधापी के दौर में वह ग़ैर ज़रूरी हो गया है। हां, तो मैं कह रहा था कि आज मेरा जो व्‍यक्तित्‍व है, वह नाटक के कारण है। मेरे व्‍यक्तित्‍व को बनाने, संवारने का श्रेय नाटक को जाता है।

आप तो संपन्‍न परिवार से हैं फिर आपने संघर्ष का रास्‍ता क्‍यों चुना?

कोई भी जानबूझकर संघर्ष का रास्‍ता नहीं चुनता।  आप करते बहुत सारे काम हैं, पर अपनाते वही हैं जिसमें आपको मज़ा आता है। मैंने भी बहुत ग़लतियां कीं, बहुत भटका, बहुत तथाकथित संघर्ष किया, पर घूम-फिरकर जब नाटक में आया तो मुझे असली मज़ा आया इसमें। दूर से कई चीजें आसान लगती हैं, वह तो उस क्षेत्र में आने पर पता चलता है कि कितने मुश्किलात हैं इधर। आपको तो पता है कि इन्‍सानी नेचर ऐसा नहीं होता कि वह सुविधाओं को छोड़ दे। मैं मानता हूं कि संघर्ष जैसा कोई शब्‍द है ही नहीं। जब हम किसी काम को अपनी मर्जी़ से चुनते हैं तो संघर्ष किस बात का? लेकिन इन्‍सान ज़बर्दस्‍ती ग्‍लोरिफाई करता है अपने संघर्ष को। अन्‍तत: तो यह आपका अपना मज़ा ही है। माना, फिल्‍मों में पैसा है, शोहरत है लेकिन आपका ताल्‍लुक़ आन्‍तरिक सुख से है। आन्‍तरिक सुख तो एक मृगतृष्‍णा है, उसकी तलाश में हम नये-नये काम करते हैं और अपनी प्रतिभा को तराशते हैं। बेहतर से बेहतर काम करने की कोशिश करते हैं। हरेक का अपना तरीका है ख़ुद को अभिव्‍यक्‍त करने का। अपने सुख के लिये काम की तलाश को आप संघर्ष कह लीजिये या कुछ और। अंतत: तो यह आपका और सिर्फ़ आपका अपना मज़ा है।

आप मुंबई किस प्रयोजन से आये?

मैं भी उन हज़ारों लोगों में से हूं जो काम की तलाश में मुंबई आते हैं। नाटक तो मैं दिल्‍ली में भी करता था लेकिन मुंबई में सिनेमा भी था और नाटक भी था। एक बात यह भी थी कि जब हम नाटक करते थे, तो नाटक के लिये ही नाटक करते थे। परन्‍तु इन्‍सान आन्‍तरिक उन्‍नति के साथ-साथ बाहरी उन्‍नति भी तो चाहता है न! दिल्‍ली में इस तरह की संभावना दिखती नहीं थी। दिल्‍ली में नाटक करना मेरी तात्‍कालिक स्थितियां थीं। मैं उन दिनों पानीपत में रहता था तो 200 किलोमीटर की दूरी थका देती थी। ऐसे में लगता था कि यह प्रोडक्टिव नहीं है। मुझे लगता था कि मैं किसी लायक नहीं हूं। मेरे साथ एक दिक्‍कत थी और अभी भी है कि कोई मुझे लंबे समय तक पकड़कर नहीं रख सकता था। मुझे महसूस हुआ कि मैं नाटक के लिये ही बना हूं और बेहतरी के लिये मुंबई शिफ्ट कर लिया। सोचा कि जब यही करना है तो जो भी होगा, देखा जायेगा। जब शिफ्ट करना ही है तो क्‍यों न मुंबई जाया जाये। मेरे लिये दिल्‍ली/मुंबई बसना एक ही बात थी। सो इस तरह पत्‍नी वीना और छोटे-छोटे दो बच्‍चों के साथ मुंबई चला आया। अकेला कभी नहीं गया। अपने परिवार को हमेशा अपने साथ रखा।

संघर्ष आपकी पीढ़ी को भी करना पड़ा था और संघर्ष आज की पीढ़ी को भी करना पड़ रहा है। इन दोनों संघर्षों में आप क्‍या फर्क़ पाते हैं?

मैंने इस पर ग़ौर से स्‍टडी नहीं की है।
संघर्ष बड़ा व्‍यक्तिगत सा होता है। संघर्ष करना इस बात पर निर्भर करता है कि व्‍यक्ति का नेचर, ज़रूरतें और व्‍ख़ाब क्‍या हैं? 
संघर्ष यह भी है कि एक नौकरी मिल जाये और रोज़ी-रोटी का जुगाड़ हो जाये। संघर्ष यह भी है कि फिल्‍मों में, सीरियलों में रोल चाहिये। इसके लिये आप फोटो खिंचायेंगे, फोटो सेशन करायेंगे। दरअसल किसी भी कार्य में हमारा पारिवारिक माहौल बहुत काम करता है। हमारे रहन-सहन, बोल-चाल, खान-पान के ढंग से पारिवारिक पृष्‍ठभूमि सामने आती है।
इंसान की हर चीज़ बहुत व्‍यक्तिगत होती है। यह अलग बात है कि हर चीज़ को जनरलाइज करने के लिये हम कुछ भी बोल जाते हैं। 
अब रही बात पहले की पीढ़ी और और आज की पीढ़ी के संघर्षों में फर्क़। तो मधुजी, मेरी पीढ़ी के लोग काफी साल पहले ही मुंबई आ गये थे और मैं एनएसडी से उत्‍तीर्ण होकर काफी साल बाद मुंबई आया था। मुझे सोचना पड़ता था कि मुझे मुंबई जाना है। एक तरफ मुंबई जैसा शहर आपको जितना आकर्षित करता है, उतना ही डराता भी है। सो पत्‍नी से विचार-विमर्श करके ही मुंबई आया। पत्‍नी के समर्थन के बिना तो बिल्‍कुल भी नहीं आता। हां, यह बात ज़रूर थी कि मुझे खाने-पीने के इंतजाम की चिन्‍ता नहीं थी। उस सबकी व्‍यवस्‍था आराम से हो जाती थी। मग़र, आज एन एस डी का बच्‍चा बहुत जल्‍दी मुंबई आ जाता है। इसका मतलब है कि टी वी के कारण इतनी ओपनिंग हो गई है कि संघर्ष कम हो गया है। आपके सीनियर साथी आपके संघर्ष को कम करते हैं। वे आपके लिये सीनियर एंकर होते हैं। वे आपका मार्गदर्शन करते हैं। हमारे समय में ऐसा नहीं था। एन एस डी से पास करके छात्रों को अकेले आना होता था और अकेले संघर्ष करना होता था। कोई मार्गदर्शन करनेवाला नहीं होता था। उस समय संघर्ष तो थे पर रास्‍तों का पता नहीं होता था कि किस राह पर चलकर मंजि़ल पाना है।

आप अपने संघर्ष को किस तरह तरह देखते हैं?

आप तो जानती हैं कि हर व्‍यक्ति की व्‍यक्तिगत तलाश है।
 कला में रोज़ी-रोटी पाना मुश्किल होता है और यह मुश्किल बनी रहती है। 
यह व्‍यक्ति पर निर्भर होता है कि वह किस बेहतर की तलाश में है। फिल्‍मों, सीरियलों में जितने अवसर बढ़ रहे हैं, डिमांड भी बढ़ रही है तो आपसी प्रतिस्‍पर्धा भी बढ़ रही है। सबको अपने क्षेत्र में काम करना आता है लेकिन इस चक्रव्‍यूह को कौन तोड़े? जो इस चक्रव्‍यूह को तोड़ने में माहिर है, वह आगे बढ़ जाता है। तो यह सब संघर्ष ही है और चलता रहेगा। यह बात अलग है कि कोई संतुष्‍ट हो जाता है और कोई इस संतुष्टि को लगातार तलाशता है। मैं अपने काम से कभी संतुष्‍ट नहीं होता बल्कि लगता रहता है कि कुछ कमी है। जब मैं मुंबई आया था तो मारूति कार लेकर आया था। तो इस बात पर लोग हंसते भी थे और जलते भी थे। लेकिन मेरा जो संघर्ष तब था, वही आज भी है। हां, वे लोग बहुत आगे बढ़ गये, पर मैं वहीं हूं। जिन्‍होंने मुझे शुरू से देखा है, वे जानते हैं कि मैं वही हूं, वहीं हूं।

आप नाटकों, फिल्‍मों और सीरियलों से ग़हराई से जुड़े हैं, किस विधा में आप ख़ुद को सहज पाते हैं?

दरअसल, सहज महसूस करना कोई मायने नहीं रखता। आपको पता है कि नाटकों, फिल्‍मों और सीरियलों के अलग- अलग अनुभव, अलग-अलग कारण और अलग- अलग सुख हैं।
हम सिनेमा इसलिये करते हैं ताकि हमारा काम ज्‍य़ादा लोगों तक पहुंचे और नाम भी पहुंचे और उसीके जरिये फाइनेंशियल इमेज पहुंचती है। हमारी व्‍यावसायिक इमेज बन जाती है। यह इसका एक पहलू है। हम सीरियल तब करते हैं जब सिनेमा में उस शीर्ष तक नहीं पहुंच पाते। 
अभिनय हम सीरियल में भी करते हैं। इससे अभिनय भी हो जाता है और एक तयशुदा रक़म भी मिल जाती है और सबसे बड़ी बात कि हम ख़ुद को बेकार महसूस न करें, विशेष रूप से सामाजिक रूप से। हां, सीरियलों के माध्‍यम से करोड़ों लोगों तक पहुंचते हैं।
मैं मानता हूं कि मुझे सीरियलों अच्‍छे रोल मिले हैं, सिनेमा में नहीं।
एक बात यह भी है कि सिनेमा व सीरियलों में वहां की कंडीशन, कंपल्‍शन्‍स में काम करना होता है। जबकि थियेटर में हमें स्‍वयं को मांजने का, रियाज़ करने का मौका मिलता है। अपने काम के नये रूप ढूंढ़ने का, आत्‍म संतुष्टि का, चुनौतियों का सामना करने का मौका नाटक में मिलता है। हम तीस से साठ दिन लगातार अपने को-स्‍टार्स के साथ काम करते हैं, उस चरित्र को जीने की अभिव्‍यक्ति में उतारने का अंदाज़ थियेटर देता है। हम नाटक को मिल-जुलकर करते हैं और कार्य को जीवन में उतारने के लिये मेहनत करते हैं। Constant प्‍यास के तौर पर फिल्‍म करते हैं। मेरा मुंबई आने का अभिप्राय फिल्‍में भी था। नाटक तो दिल्‍ली में भी कर रहे थे। एक अच्‍छे नाटक की की संतुष्टि आंतरिक है जो सिनेमा, सीरियल में कभी ही मिलती है। इच्‍छा है उन क्षणों को जीने की जो मुझे, आपको और लोगों को मज़ा दे।

फिल्‍मो में भाषा की गिरावट के विषय में आप क्‍या कहना चाहेंगे?

ऐसा कुछ भी नहीं है। फिल्‍मों में वह भाषा है जो लेखक, डाइरेक्‍टर ने दी है। एक्‍टर उनकी संतुष्टि के लिये कार्य करता है और उसे करना पड़ेगा, चाहे वह ग़लत ही क्‍यों न हो। आपके और मेरे लिये जो कुभाषा है, वही उनके लिये भाषा है। आप ही बताईये, हमारे पास अपने जो संस्‍कार हैं, नाटक के जो अनुभव हैं, जो भाषा है ये सब कहां जायेंगे? उसे हम कैसे भुला पायेंगे? ऐसा तो मुझे कभी कोई कारण नहीं मिला कि इस भाषा को छोड़कर उस भाषा को पकड़ूं।

कुछ वर्षों से आपके आंगन में चौपाल का आयोजन हो रहा है, तो चौपाल का ख़याल आपके मन में कैसे आया?

कहीं न कहीं अवचेतन मन में मिल-बैठकर बतियाने की तमन्‍ना थी। हम जिस तरह की जि़न्‍दगी जीते हैं उसमें थियेटर में भी उतने मौके नहीं मिल पाते। नाटक का सूत्रधार, निर्देशक, लेखक एक ही व्‍यक्ति होता है। वह आल इन वन काम करता है। वह अकेला पूरी संस्‍था चलाता है। हिंदी नाटक के कुल जमा चार- पांच ही ग्रुप हैं। हमेशा यह ज़रूरी नहीं होता कि हम उसी ग्रुप के साथ काम करें। मेरे पास संस्‍था चलाने की कूवत नहीं है। प्रमुख रूप से मेरे अन्‍दर एक्‍टर है। चौपाल शुरू होने से पहले की बात है, हम लोग इकठ्ठे बैठकर कभी-कभी नाटक पढ़ते थे। ख़ुद से जुड़े रहने के लिये, अपनी आत्‍मा की ख़ुराक के लिये यह ज़रूरी लगा। चौपाल शुरू करने का श्रेय शेखरसेन को जाता है1 उन्‍होने चौपाल के आयोजन का सपना दिखाया, विचार दिया और उनके इस विचार और सपने को 1998 में चौपाल को शुरू करके कार्यरूप दे दिया गया और इस प्रकार चौपाल का जन्‍म हो गया। मुझे याद आता है कि 27 जून, 1998 को कालिदास जयन्‍ती थी। उस दिन आषाढ़ का एक दिन नाटक और मेघदूत आदि पढ़े गये। हमने ही अपने- अपने पांच-पांच लोगों को आमंत्रित कर लिया और आगे चलकर इसे अच्‍छा सहयोग और ज़बर्दस्‍त समर्थन मिला। फिर धीरे-धीरे काम बांटते चले गये और अब महीने में एक बार चौपाल जमती है। मेरा इसमें सहयोग कम है। इसकी जि़म्‍मेदारी संभालनेवाली त्रिमूर्ति है- शेखरसेन, अतुल तिवारी और अशोक बिन्‍दल। ये लोग आउट आफ वे जाकर काम करते हैं। ये लोग चौपाल के प्रति पूरी तरह समर्पित हैं और उन्‍होने इसे महत्‍वपूर्ण माना है। जो इस चौपाल में आते हैं, उनका जिस तरह से साथ मिलता है, वह अभूतपूर्व है। हम एक-दूसरे को चौपाली कहते हैं। चौपाल को शुरू हुए चौदह वर्ष हो गये।

आप अभी हाल में एक ग्रुप के साथ फैज़ पर आयोजित कार्यक्रम हेतु पाकिस्‍तान गये थे, वहां का अनुभव कैसा रहा?

यह अनुभव अपने आप में अद्भुत था। हम लोग वहां पांच दिन थे। बहुत ही मज़ा आया। हमारे दिलों में सामाजिक, राजनैतिक ख़बरों की वजह से जो टोटल पर्सपैक्‍शन बस गया है, जिसमें दुश्‍मनी दिखती है, उससे एकदम सौ प्रतिशत उलट अनुभव मिलते हैं, वहां जाकर व्‍यक्तिगत तौर पर।
मेरे जैसा व्‍यक्ति सोचता है कि दोनों देशों के द्वारा फैलाया गया यह षणयंत्र का जाल है ताकि उनकी गद्दियां बची रहें। 
उन्‍होने हमें जो सम्‍मान दिया, उससे भ्रान्तियां टूटती हैं। उनकी भी हमारी जैसी संस्‍कृति, सरोकार और भावुकता है। हमारे यहां किसी कवि को लेकर ऐसा कुछ भी नहीं होता जबकि हमारे यहां उनके बनिस्‍बत ज्‍य़ादा खुलापन है। वहां फैज़ का म्‍यूजियम है, लायब्रेरी है जो जनता के लिये खुली है। अपने यहां ऐसे बहुत से घराने, परिवार हैं जो बहुत कुछ कर सकते हैं, पर किसी ने हमारे लेखकों के लिये कभी ऐसा कुछ नहीं किया है। हमें साहित्‍य के जरिये उन लोगों में घुसपैठ करनी चाहिये और अपने यहां भी ऐसे काम होने चाहिये। हम बारह लोग वहां गये तो यदि हम उनका सद्व्‍यवहार बारह सौ लोगों तक भी पहुंचा सकें तो हमारे बीच के पूर्वाग्रह कम हो सकेंगे और एक दूसरे को स्‍वीकार करने की क्षमता विकसित कर सकेंगे1 यदि हम यह आना- जाना शुरू कर दें तो इसके दूरगामी परिणाम बहुत अच्‍छे हो सकते हैं, लेकिन…

थियेटर ने आपको नाम, ख्‍याति, स्‍थायित्‍व और पहचान दी है। सुना है, आपको जीवनसाथी भी थियेटर ने दिया है?

जी, नाटक की दुनिया ने पत्‍नी दी है, नाटक ने नहीं। मैं नाटक-यात्रा के दौरान उज्‍जैन में 'अंधा युग' नाटक कर रहा था, जिसमें वीना के रिश्‍तेदार काम कर रहे थे। उनके जरिये वीना से मुलाक़ात हुई, वह नाटक की देन हैं।

आपकी पत्‍नी आपकी सहयोगी ही बनीं या कभी रूकावट भी बनीं?

वीना ने हमेशा मेरा साथ दिया है1 उन्‍होने दिल से, पूरी तरह से साथ दिया है। सचमुच Big support. उन्‍होने बख़ूबी घर की जि़म्‍मेदारी, बच्‍चों की जि़म्‍मेदारी संभाली। मुझे लगता है कि यह प्‍लस पांइट हो जाता है आपके काम में।  हम तो एक दूसरी दुनिया से आये लोग हैं जिन्‍हें 'परिवार' पता नहीं होता। धीरे-धीरे स्‍वीकारोक्ति होती है और इसमें वीना काफी पाजिटिव रही।

संबंधों को बनाने, सहेजने में आप ख़ुद को कितना सहज महसूस करते हैं?

मैं बहुत सहज और असहज दोनों हूं। मुझसे संबंधों में पहल नहीं हो पाती है। सहज संबंध अपने आप बन जायें तो बन जाते हैं और फिर बहुत लंबे तक चलते हैं। मेरे सोशल संबंध नहीं होते। मुझसे परिचय बढ़ानेवाले संबंध नहीं बन पाते। आप ग़ौर करती होंगी कि मैं चौपाल में भी ज्‍य़ादा ग़ुफ्तगू नहीं कर पाता। जब तक परिचय औपचारिक रहता है, निजी नहीं होता तो बहुत समय लगता है सहज संबंध बनाने में। गोष्ठियों, पार्टियों में मिले परिचय संबंध का रूप ले ही नहीं पाते। मेरे लिये पर्सनल बात बहुत ज़रूरी है याने वन-टू-वन बातचीत। मेरा मेमोरी सिस्‍टम बहुत ख़राब है जिसके कारण मुझे जल्‍दी कुछ याद नहीं आता। दूसरे, हर आदमी की सोच अलग होती है। यदि इसे स्‍वीकार कर लें तो दुनिया आसान हो जायेगी। जैसे चेहरे अलग-अलग हैं, वैसे ही सोच, इच्‍छाएं, प्रमुखताएं अलग-अलग हैं। मज़े, शौक, सरोकार सब कुछ अलग हैं। इसलिये जनरल न कुछ कह सकते हैं और न कर सकते हैं। कामन फैक्‍टर्स को निकालकर एक रूप दे दिया जाये, यह जुदा बात है। गणित, फिजिक्‍स के नियम जनरल हैं, ये पढ़ाये जा सकते हैं, लेकिन मानव स्‍वभाव!  ये सबसे परे है।

शब्दांकन के लिये मुंबई से मधु अरोड़ा

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